आठे कन्हैया – 36 गढ़ मा सिरि किसन के लोक स्वरूप

– प्रोफेसर अश्विनी केसरबानी
छत्तिसगढ़ मा तेरता जुग अऊ द्वापर जुग के किसिम किसिम के बात देखे अऊ सुने बर मिलथे। ये हमर सब्बो छत्तिसगढ़िया मन के सउभाग्य हवे कि अइसे पवित भुइंया म हमर जनम होये हवे अउ इहां रहत हवन। इहां जगह जगह म राधा किसन के मंदिर हवय जेकर दरवाजा म गरूण जी हाथ जोरे बइठे दिखते। इहां के छोटे बड़े, अमीर गरीब अउ जंगल म रहवाइया आदिवासी मन के मन म ओखर प्रति अगाध सरधा हवय। सबके मन म सिरि किसन के लोक स्वरूप के कल्पना सही में लोक रक्छक करे गे हवय। सब्बो जानथे कि ओखर जनम कंस ल मारके ओकर जुलुम ले मथुरा, गोकुल अउ बिरिन्दाबन के लोगन मन ल मुक्ति देहे बर नई रहिस बल्कि पूरा ब्रम्हांड म राक्छस मन ल मारके भक्ति भाव अउ लोक सुराज लाये के रहिस हवय। बिचार करे ले समझ म आथे कि सिरि किसन के मैया देवकी के गरभ ले जनम लेहे, मैया जसोदा ल अपन बाललीला दिखाय अउ कउरव पांडव के माध्यम ले पूरा ब्रम्हांड ले राक्छसी प्रवृत्ति से लोकलीला करके मुक्ति दिलाइस। ओखर पूरा जीवन अनुकरणीय हवय। जेला अलग अलग ढंग ले कवि अउ लिखवइया मन लिखे हवय, गवइया मन गाये हवय। लोगन मन रासलीला करथे अउ गीत गाथे। हमर छत्तिसगढ़ के सौरिनारायेन म भारतेन्दुकालीन कवि पंडित हीराराम तिरपाठी ह रासलीला गीत लिखे हवय जेला रासलीला करत लोगन गावे-
चल वृन्दावन घनस्याम दृष्टि तबै आवै।
होगा पूरन काम जन्म फल पावै।।
द्रुम लता गुल्म तरू वृक्ष पत्र दल दल में।
जित देखे तित श्याम दिखत पल-पल में।।
घर नेह सदा सुख गेह देखु जल थल में।
पावेगा प्रगट प्रभाव हिये निरमल में।।
तब पड़े सलोने श्याम मधुर रस गावै।।1।।
तट जमुना तरू वट मूल लसै घनस्यामैं।
तिरछी चितवन है चारू नैन अभिरामैं।।
कटि कसै कांछनी चीर हीर मनि तामैं।
मकराकृत कुण्डल लोल अमोल ललामैं।।
मन स्वच्छ होय दृग कोर ओर दरसावै।।2।।
सुख पुंज कुंज करताल बजत सहनाई।
अरू चंग उपंग मृदंग रंग सुखढाई।।
मन भरे रसिक श्याम सज्जन मन भाई।
जेहि ढूँढ़त ज्ञानी निकट कबहुं नहिं पाई।।
युग अंखियों में भरि नीर निरखि हुलसावै।।3।।
श्रीकृष्ण प्रीति के रीति हिये जब परसै।
अष्टांग योग के रीति आपु से बरसै।
द्विज हीरा करू विस्वास आस मन हरसै।।
अज्ञान तिमिर मिटि जाय नाम रवि कर से।।
तब तेरे में निज रूप प्रगट परसावै।।4।।
चल वृन्दावन घनश्याम दृष्टि तब आवै।।




छत्तिसगढ़ म जन्माष्टमी ल सिरिकिसन के लोक स्वरूप के कल्पना करे गये हवय अउ येला ‘‘आठे कन्हैया‘‘ कहे जाथे। इही दिन सिरि किसन के जनम होय रहिस। भादो के किसन अष्टमी के रात म रोहनी नछत्र म देवकी मैया के आठवें लइका के रूप म ओकर जनम होइस। ओकर जनम अइनहे समय म होइस जब सब्बो तरफ कंस के आतंक रहिस। ओकर जनम के पहिली ओकर छै भाई मन ल कंस ह मार डारे रहिस। सब्बो डहर दुखी जन रोवत गात रहिस। कहे जाथे-
जब जब होही धरम के हानि, बाड़ ही असुर अधम अभिमानी।
तब तब धरि मनुज सरीरा, हरहिं भवनिधि पीरा।।
कारागार म देवकी अउ वसुदेव अपन छै लइका के मरे के सोक म डूबे दुख मनात रहिस। ईसवर किरपा ले सातवां गरभ रोहिनी के गरभ म चल दिस अउ अब आठवां गरभ म सिरि किसन आइस त सब तरफ खुसी दिखे लागिस। कवि कपिलनाथ अपन सिरि किसन महाकाब्य में लिखे हवय-
जउने दिन ले गरभ आठवां मा प्रभु आइन,
धरती अउ आकास मा प्रभुता अपन देखाइन।
बहिस सुगंधी पवन रूख राई हरियागे,
लागय असमय मा जाना बसंत रितु आगे।।
अमरइया मा आ आ कोयली कूके लागिन,
जहां तहां बन भीतर टेसू फूले लागिन।
फूल फूल जा जाके भंवरा गूंजे लागिन,
डार डार मा सूवा मैना झूले लागिन।।
भादो कारी रात भयानक
बिजली चमकय छिन छिन भरमा।
चारो कइत रहय सन्नाटा
पानी पानी धरती भर मा।।
होइस जब अधरतिया बेरा
रोहिनी लगिस नछत्तर
प्रगट भइन प्रभु बंदी गृह मा
रूप चतुरभुज धर कर।।
संख चक्र अउ गदा पद्म धर
पहिरे दिब्य पितांबर।
कानन कुंडल झिलमिल डोलय
सुंदर बनमाला गर।।
दरस देके कहिन प्रभु, जल्दी
मोला गोकुल अमरावा।
नंद महर घर ले जाके जनमे
कइना जसुदा ले आवा।।
सिरि किसन के लीला ल कोनो नइ समझ सकय। ओकर जनम सब्बो झन ल दुख से मुकति देहे बर होय रहिस। ओला लीला करना रहिस तभे जसोदा मैया के घर जाके लीला करिन। एक एक करके सब्बो राक्छस मन ल मरिस, गउ चराइस अउ दूध दही खाइस। कपिल कवि लिखथे –
मथुरा नगरी जान न देवन, अब गोकुल के दूध दही,
बिन पेट भर खाये तुमन जान न पावा बात सही।
अबले बेंचा मथुरा जाके, चोरी चोरी दूध दही,
भर भरके जो गाय चरावंय, पावंय पीये छांछ मही।।
अऊ किसन अपन संगी मन के साथ सबके घर जाके माखन खावे। घर घर जाके माखन चारी करके खाये खातिर ओखर नाव ‘‘माखन चोर‘‘ रख दिस। किसन अपन तो माखन खाये, अपन संगी मन ल भी माखन खवाय। कवि लिखथे-
बांट बांट के माखन मिसरी खाये लागिन।
एक एक के खा खा के सहराय लागिन,
ब्रम्हा देख किसन के लीला भक्खल होगे,
समझ न आइस चिटको वोला अक्कल खेगे।
कहां ब्रम्ह अवतार कहंय समझ न आवय।
बन म आके गोप ग्वाल के जूठा खांवय।।




छत्तिसगढ़ मा आठे कन्हैया के दिन मटकी म माखन रखके फोड़े के रिवाज हवय। चऊंक चौउराहा म मटकी बांधे जाथे अउ किसन के टोली बाजा गाजा के साथ जा जाके मटकी फोड़थे। दूध दही लुटाथे अउ माउज मस्ती करथे। येला इहां ‘‘दहिकांदों‘‘ कहे जाथे। सब्बो गांव म दहिकांदो होथे।
राइगढ़ म सेठ किरोड़ीमल ह गउरीशंकर के संगमरमर के देखे लाइक मंदिर बनवाय हवय। मंदिर म गउरी शंकर के साथ साथ राधा किसन के भी सुंदर मूरत हवय। इहां आठे कन्हैया के दिन भब्य झांकी बनाथे जेमा किसन के कई रूप बनाय जाथे अउ जेला देखे बर बहुत लोगन इहां आथे। किसिम किसिम के दुकान, झूला अउ प्रदर्शनी लगाये जाथे। इहां के जन्माष्टमी मेला पूरा छत्तिसगढ़ म परसिद्ध हवय। अइसनहे जांजगीर चांपा जिला के नरियरा म राधा किसन के बहुत सुंदर मूरत हवय। इहां के मंदिर परिसर म आठे कन्हैया के दिन रासलीला होवय। रासलीला करे बर दूर दूर के कलाकार आवे। रासलीला के आयोजन म अकलतरा के बैरिस्टर छेदीलाल के बहनोई कोसिरसिंह अउ भांजा विसेसर सिंह ह लगे रहे। अनेक गम्मतहिया, नचकरिहा इहां आवे जेमा सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मनदास चिकरहा, गउद के दादू सिंह अउ ननका रहस मंडली इहां रासलीला करय। जेला देखे बर अब्बड़ दूर दूर के लोगन इहां आवय। इहां के रासलीला अतका परसिद्ध होइस कि नरियरा ल ‘‘छत्तिसगढ़ के बृंदावन‘‘ कहे जाय लगिस। कवि सुकलाल पांडेय ह छत्तिसगढ़ गौरव म लिखे हवय-
ब्रज की सी रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारो।
छत्तिसगढ़ म रासलीला करे खातिर सौरिनारायन के पंडित हीराराम तिरपाठी के गीत ल गावे। वोकर गीत बड़ा परसिद्ध रहिस। ये सिरि किसन के पचरंग सिंगार गीत देखव –
पंच रंग पर मान कसें घनश्याम लाल यसुदा के।
वाके वह सींगार बीच सब रंग भरा बसुधा के।।
है लाल रंग सिर पेंच पाव सोहै,
अँखियों में लाल ज्यौं कंज निरखि द्रिग मोहै।
है लाल हृदै उर माल कसे जरदा के।।1।।
पीले रंग तन पीत पिछौरा पीले।
पीले केचन कड़ा कसीले पीले।।
पीले बाजूबन्द कनक बसुदा के ।। पांच रंग ।।2।।
है हरे रंग द्रुम बेलि हरे मणि छज्जे।
हरि येरे वेणु मणि जड़ित अधर पर बज्जे।।
है हरित हृदय के हार भार प्रभुता के।। पांच रंग।। 3।।
है नील निरज सम कोर श्याम मनहर के।
नीरज नील विसाल छटा जलधर के।।
है नील झलक मणि ललक वपुष वरता के।। पांच रंग।।4।।
यह श्वेत स्वच्छ वर विसद वेद जस गावे।
कन स्वेत सर्वदा लहत हृदय तब आवे।।
द्विज हीरा पचरंग साज स्याम सुखदा के।। पांच रंग।।5।।
सिरि किसन के किरपा के कुछु नइ होवय। जेकर उवर वोकर किरपा होथे वोही रासलीला करे सकथे। सिरि किसन के भक्ति के प्रचार पर कवि के गीत हमेसा गाये जात रहिस-
कृष्ण कृपा नहिं जापर होई दुई लोक सुख ताहिं न होई।
देव नदी तट प्यास मरै सो अमृत असन विष सम पलटोई।।
धनद होहि पै न पावै कौड़ी कल्पद्रुम तर छुधित सो होई।
ताको चन्द्र किरन अगनी सम रवि-कर ताको ठंढ करोई।। द्विज हीरा हरि चरण शरण रहु तोकू त्रास देइ नहिं कोई।।
येकरे बर कहे जाथे कि सिरि किसन के किरपा खातिर भक्ति जरूरी हवय। लइका के जनम के समय इहां सोहर गीत गाये जाथे। अइसनहे एक सोहर गीत म कंस के कारागार म देवकी अउ बसुदेव के दुख के मारमिक चित्रण करे गे हवय –
मन मन गुने रानी देवकी
मन म बिचारन लागे ओ
ललना ऐही गरभ मैं कैसे
बचइ लेत्यौं ओ
सात पुत्र राम हर दिये
सबो ल कंस हर ले लिस ओ
ललना आठे गरभ अवतारे
मैं कैसे बचइ लेत्यौं ओ
घर ले निकरे जसोदा रानी
मेर सुभ दिन सावन ओ
ललना, चलत हवै जमुना असनाने
सत सखी आगू सात सखी पीछू ओ
सेने के घइला मूड़ म लिये
रेसम सूत गुड़री हे ओ
ललना, चलत हे जमुना पानी।
सात सखी आगू, सात सखी पीछू ओ
कोनो सखी हाथ पांव छुए
कोनो सखी मुंह धोवै ओ,
कोनो जमुना पार देखै
देवकी, रोवत हवै ओ
घेरि घेरि देखै रानी जसोदा।
मन में बिचारन लागे ओ
कैसे के नहकों जमुना पारे
देवकी ल समझा आतेंव ओ
न तो दिखे, घाट घठौना
नइ दिखे नाव डोंगा ओ
ललना, कइसे नहकों जमुना पारे
जमुना, बैरिन भरे हावय ओ
भिरे कछोरा मुड़ उघरा
जसोदा जमुना घंसिगे ओ
ललना, चलत हावय देवकी के पासे
जमुना ल नहकि के ओ
मत रो तैं मत रो देवकी
मैं तोला समझावत हौं ओ
ललना, कैसे विपत तोला होए
काहे दुख रोवत होवस हो
कोन तोर सखा पुर में बसे
तोर कोन घर दुरिहा है ओ
ललना, कोन तोर सइयां गए परदेसे।
गरभ के दुख ल रोवत हवौं वो
सात पुत्र राम हर दिये
सबे ल कंस हर लिस ओ
ललना, आठे गरभ अवतारे
मैं कइसे बचइलेबौं ओ
इस सोहर गीत म देवकी मैया के मन के पीरा के बड़ा ही मारमिक चित्रण हवय। यानी छत्तिसगढ़िया जन जीवन म सिरि किसन के लोक स्वरूप के दरसन होथे। तभे तो आठे कन्हैया के दिन लोग लइका, सियान अउ माइलोगन तक उपवास रकथे। बड़े भक्ति भाव से किसिम किसिम के जेवनास जैसे मालपुआ, खोवा के कुसली, बइचांदी के गुड़हा अउ सक्कर के पाग, तिखुर, राजगीर के लड्डू, सिंघाड़ा अउ धनिया पंजरी के भोग बनाये जाथे। ये तिहार के सब्बो झन ल बहुत इंतजार रथे। ये जेवनास ल भोग लगाके अपन सब्बो रिस्तेदार के घर भेजे जाथे। ये तिहार मिल बांटके रहे अउ खाये के तिहार कहे जाथे।

-प्रोफेसर अश्विनी केसरबानी
‘‘राघव‘‘ डागा कालोनी,
चांपा, छत्तिसगढ़

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