(मोरेश्वर तपस्वी ”अथक” द्वारा लिखित ”बारह आने” का अनुदित अंश)
वो ह मोर हाथ ल धरलिस अउ एक ठन छोटकन पुड़िया दे के मोर मुठा ल बंद कर दिस अउ कहिस- बाबू जी, आज मोर मंसा ह पूरा होगे। मैं तुम्हीं ल खोजत रहेंव। आज मिलगेव। ये पुड़िया म तुंहर बारा आना ह हावय। बाबूजी, मैं गरीब हंव फेर काकरो उपकार ल रखना नइ चाहवं। दू महीना बनी करके मैं ये बारा आना ल बचाय हांवव।
संझा के बेरा रहिस। अगास करिया-करिया बादर छाय रहिस। बादर ल चीर के सुरुज भगवान के किरन ह सतरंगी छटा देखावत रहिस। हवा के झकोरा पाके पेड़, पउधा सिहर जावय। अइसे लागय जइसे भींगे चिरई ह पांखी ल फड़फड़ा के पानी ल झर्रावत हे।
अइसे सुघ्घर मउसम म दू-चार गिंया संग मैं ह घूमे बर निकलेंव। हमन बतियावत रेंगत रहन, का जानी कइसे मोर धियान ह सड़क तीर परे एक झन मनसे डहर चल दिस। मन के मानवता जाग गे अउ हमन वोकर तीर म पहुंच गेन।
अरे! ये तो एक झन माई लोगिन आय। वोकर पहिरे ओढ़ना ह भींग गे रहिस हे। सुध-बुध गंवाए वो माईलोगिन ह अचेत परे रहिस।
‘ए बाई!’ हमन वोला जगाना चाहेन, फेर वो ह टस ले मस नि होइस। कहुं ये ह हमेसा-हमेसा बर तो नि सुतहे? मन कांप गे। मे हर वोकर हाथ ल छूएंव, लागिस जइसे बिजली के तार ल छू डारेंव। वोकर देह ह गरम तावा कस जरत रहय। बड़ा अचरज लागिस। बरसा म भींगे देह म तिपन!!
आंखी म पानी छींचेन त वोला चेत आइस। आंखी ल खोलिस। मैं पूछेंव- ‘इंहा कइसे परे हस बाई? तोला तो बोखार चढ़ा ले हे।’
‘हां भइया!’ वो ह जइसे-तइसे उठत कहिस।
‘एती कहां जात रहे बाई?’ मोर गिंया ह पूछिस।
‘तरिया म बूता करे गे रहेंव भइय्या।’ एकदम धीरे आवाज म कहिस।
‘कहां रहिथस?’ दूसर मितान ह पूछिस
‘राजा मोहल्ला म।’
‘राजा मोहल्ला म? अतेक दुरिहा। कइसे जाबे बाई? पांच मिल दुरिहा?’
‘चल देहू भइय्या।’ उठे के कोसिस करत कहिस।
वो करा सकला गे रहिस-सबे देखइया। मैं मन म बिचार करत रहेंव। बनी करइया माई लोगिन…तेज बोखार म घला जाय के हिम्मत, लड़खड़ावत… कांपत।
‘रिक्शा कर ले बाई! राजा मोहल्ला बहुत दुरिहा हे।’ देखइया मनसे मन म एक झन के सहानुभूति जाग गे रहिस।
‘नहीं भइया! रिक्शा वाला ल पइसा कहां ले देहां? मोर करा तो एक कउड़ी नइए।’ वो ह सत बात ल बता दिस।
‘घर पहुंच के दे देबे।’ एक झन दूसर देखइय्या ह वोकर समस्या ल सुलझाना चाहिस।
‘नहीं, नहीं। मोर करा घर में घला पइसा नइए भइय्या। रोजी मजूरी करके जिनगी चलाथंव।’
अइसे कहिके वो ह लड़खड़ावत रेंगे लागिस। वो चेहरा म हल्का हाँसी के भाव तंउर गे।
वोकर हाँसी म गहिरा अरथ समाय रहय। देखइया मन के बुध्दि ऊपर जइसे बियंग करत हे। रिक्शा वाला ल दे खातिर पइसा रतिस त का वो ह रद्दा म परे रतिस। पांच मील दुरिहा काम करे बर काबर खातिस? पइसा वोकर खातिर दुर्लभ चीज रहिस, नियति के कइसन खेल आय?
हमन सिरिफ घूमे बर निकरे रहेन फेर पइसा पास म धरे रहेन। भीड़ देख के एक झन रिक्शावाल घला आगे रहिस। मेंह वोला पूछेंव-‘का लेबे भइया राजा मोहल्ला के?’
‘एक रुपिया दे देबे बाबूजी।’
‘बारा आना देहां।’
‘अच्छा चलव। के सवारी हव।’
‘एक झन।’
‘बइठा।’
‘मैं नि जावां, ये बाई जाही। लेजा एला।’
मैं बाई ल रिक्शा म बइठारेंव अउ रिक्शा वाला के हाथ म बारा आना दे देंव।
‘बाबूजी।’ वो दाई के आंखी ले आंसू गिरे लागिस। वोला सहारा दे के रिक्शा म बइठारेंव अउ रिक्शा वाला ल सही सलामत पहुंचाय बर कहिके उहां ले रवाना करेंव।
देखइया मन कबके रेंग दे रहिन। रिक्शा दुरिहावत जात रहिस अउ मैं एकटक वोला देखत रहेंव जब तक वो आंखी म दिखत रहिस। राजा-मोहल्ला के ये कंगाल। वोकर पीरा ह मोर हिरदे ल भेदत रहय।
‘दू महिना बीते बाद म, तरिया तिर रहइया मोर एक झन मितान ह मोर करा आइस। गांव के सबे हालचाल के वोला जनबा रहय ते पाय के वोला ‘नारद’ कहंव। एती-वोती के बात होत रहय, मे वोला पूछेंव अउ का नवा खबर हे नारद जी?’
कांही नवा खबर तो नइए फेर हां, आजकाल हमर घर तिर के चौरद्दा म एक झिन माई लोगिन बइठे रथे। में वोकर बात पूरे के पहिलिच्च पूछेंव-‘माई लोगिन? कइसे बइठे रथे?’
‘का करही। सफेद धोती अउ फीश पिवरां रंग के कुर्ता पहिने कोनो वो रद्द ले निकरथें त वो-ह वोकर करा पहुंच जाथे, अउ वोकर हाथ ल धर के सिर ले पांव तक निहार थे। अउ निराश होके अपन ठउर म वापिस जा के बइठ जाथे।’
‘अच्छा। त का वो ह दिन भर बइठे रथे?’ नारद जी ह मोर जाने के मंसा ल बढ़ा दे रहिस।
‘नहीं। लागथे वो ह कोना बनिहारिन आय। संझा 5 बजे ले दीया-बाती बरत-बरत तक उहां बइठथे। फेर पता नि चलय कहां चल देथे। देखइय्याय मन वोला पगली कथें।’
एकाएक मोर मन म ये विचार उठे लागिस के वो रद्दा म बइठय्या माईलोगिन ह उही तो नो हे जेला मैं रिक्शा म बइठा के भेजे रहेंव। राजा मोहल्ला। बस अइसे विचार आते मैं रेंग देंव तरिया डहर। नारद जी घला जेती ले आय रिहिस चल दिस।
फेर उही संझा के बेरा। चौक म जाके देखेंव मोर अनुमान ह सिरतोन निकरिस।
‘बाबूजी।’ चिल्लावत, दउड़त मीेर करा आगे। वो ह मोर हाथ ल धरलिस अउ अक ठन छोटकन पुड़िया देके मोर मुठा ल बंद कर दिस अउ कहिस-‘बाबू जी आज मोर मंसा ह पूरा होगे। मैं तुहीं ल खोजत रहेंव। आज मिल गेव। ये पुड़िया म तुंहर बारा आना ह हावय। बाबूजी, मैं गरीब हंव फेर काकरो उपकार ल रखना नइ चाहंव। दू महीना बनी करके मैं ये बारा आना ल बचाय हंव। वो समे म तुम मोर बर भगवान बन के आय रहेव। भगवान तुंहर भला करय।’
‘अरे सुन तो। मोला नइ चाही ये पइसा।’ मैं कहेंव, तभो ले वो ह अनसुनी करके भाग गे। मैं अवाक् रहिगेंव। वो चल दिस। मोला अपन ऊपर बहुत घुस्सा आइस। मैं वोकर हाल-चाल घला नइ पूछ पायेंव। मैं अपन ल धिक्कारत बारा आना के वो पुड़िया ल अपन खीसा म डार के मुंह लटकाए अपन घर लहुट गेंव।
मन म विचार उठे लागिस वो राजा मोहल्ला के कंगाल नो हे, हमीं मानवता के कंगाल आन। मोला ‘बारा आना’ लहुटा के वो माई लोगिन ह अपन महान मानवता के परिचय दिस। ये ‘बारा आना’ अभी तक ले उही मइलाहा पुड़िया म मोर टेबिल के साम्हू अरिया म सुरक्षित रखे हे। जिनगी के एक घटित घटना के सुरता देवावत। वो पुड़िया ल देखते आज घला मोर मन म प्रश्न खड़ा हो जाथे, के मैं वोला बारा आना देंव तेन मानवता आय के दू महीना पसीना गिरा के, पेट काट के वो ह ‘बारा आना’ ल लहुटाइस वो मानवता ये।
राघवेंद्र अग्रवाल
खैरघटा वाले
बलौदाबाजार