चारों खुंट अंधेर अघात।
पापी मन पनपै दिन रात।
भरय तिजौरी भ्रस्टाचार
आरुग मन बर सुक्खा भात॥
रिसवत लेवत पकड़ागे तौ रिसवत देके छूट।
किसम-किसम के इहां घोटाला, बगरे चारों खूंट।
कुरसी हे अऊ अक्कल हे, अउ हावय नीयत चोर
बगरे हवै खजाना, जतका लूट सकत हस लूट॥
कांटा गड़िस नहरनी म हेर।
जम्मो दुरगुन ले मुंह फेर।
झन कर अतलंग अउ अंधेर
करनी दिखही मरनी के बेर॥
कहूं गरीबी भगा जही तौ, कोन ओढ़ही कथरी ला?
मगर मन खोजत रही जाही, नान्हे-नान्हे मछरी ला।
चार धाम के तिरिथ करे बर भ्रस्टाचार निकल हूं कइथे-
गंगा जाही कुकुर कहूं तौ कोन चांटही पतरी ला।
फोकट कभू लड़ई झन कर।
चमचा असन बड़ई झन कर।
पढ़य फारसी बेंचय तेल
अइसन कभू पढ़ई झन कर॥
जिनगी के जीये बर, नोहे जी मरे बर
दुनिया मा बने-बने काम घलो करे बर।
ककरो बर जिनगी ह, बोझा झन बनै कभू
जिनगी फलदार पेड़ झर-झर के फरे बर।
रघुबीर अग्रवाल ‘पथिक’
शिक्षक नगर दुर्ग
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अब्बड़ सुघ्घर गियान के कविता लिख के परोसे हव , जोहार !!