बरसा के बादर आ रे : कबिता

मयारू आंखी काजर कस छा रे।
बरसा के बादर आ रे॥
सुक्खा होगे तरिया, नरवा।
बिन पानी के कुंआ, डबरा॥
बियाकुल होगे जीव-परानी।
सबो कहंय-कब बरसही पानी॥
मोर मीत के केस छरिया रे।
बरसा के बादर आ रे॥
पंखा डोलावय हवा सरर-सरर।
बरसे पानी झझर-झरर॥
मेघ ह गरजय, घुमरय, बरसय।
चिरई-चिरगुन, परानी मन हरसय॥
मेघ-मल्हार तैं गा रे।
बरसा के बादर आ रे॥
सबके तन-मन ल जुड़ा दे।
खेत-खार हरिया दे॥
नदिया म धार बोहा दे।
भुंइया ल हरियर रंग सजादे॥
परब-तिहार ल ला रे।
बरसा के बादर आ रे॥
मयारू के गांव, अस्सी कोस नौ बासा।
ऊंच-ऊंच डोंगरी, ऊंच अकासा॥
सोर-संदेस के नइए ठिकाना।
नइ होवय कभू आना-जाना॥
घुमरत-घुमरत जाके तैं संदेसा ला रे।
बरसा के बादर आ रे॥

आनन्द तिवारी पौराणिक
श्रीराम टाकीज मार्ग
महासमुन्द

आरंभ म पढ़व : –
नत्‍था का स्‍वप्‍नलोक और माया नगरी : अरूण काठोटे
तोर बिन सजनी नींदे नई आवय, कईसे गुजारंव रात

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4 Thoughts to “बरसा के बादर आ रे : कबिता”

  1. कब आअेगा बदरा ।

  2. अच्छा लगा पढ़कर कविता.

  3. पढ़कर लगा कि फुहारों में मन भीग रहा है, बधाई.

  4. रक्षाबन्धन के पावन पर्व की हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएँ

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