जुन्ना दइहनहीं म जब ले
दारु भट्ठी होटल खुलगे
टूरा टनका मन बहकत हें
सब चाल चरित्तर ल भूलगें
मुख दरवाजा म लिखाये
हावय पंचयती राज जिहाँ
चतवारे खातिर चतुरा मन
नई आवत हांवय बाज उहाँ
गुरतुर भाखा सपना हो गय
सब काँव -काँव नारियावत हें
देखते देखत अब गाँव गियाँ
सब सहर कती ओरियावत हें !
कलपत कोयली बिलपत मैना
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हें !
-बुधराम यादव
bahut badiya sir.
बहुत बढ़िया कविता हे
बधाई हो
आज के स्थिति के सुघ्घ्रर चित्रण् बधाई