यहू नारी ये फेर येकर समाज म कोनो सुनाई होवे। कोन जांच कराही की येकर कोख कइसे हरियागे।
नारी सही दिखत ये पगली संग कोन अपन तन के गरमी जुड़ाइस। हादसा होही या बरपेली। का समझौता घलो हो सकथे? मन म सवाल ऊपर सवाल उठत हे। फेर जवाब के अभाव म ओ सवाल के कोनो अस्तित्व नई दिखथे।
हमर समाज आज नारी परानी ल देवी अउ जननी कइके उंखर मान बढ़ाथे। फेर का हमर मन मानथे ओला देवी? ये आत्मचिंतन के विसय आय। देव दानव ले भरे समाज म नारी कतका अपमानित होवथे सबो जानत हन। आय दिन चीरहरन के खबर अखबार म छपते रइथे। आजकाल के अखबार के खबर घलो मसालेदार रइथे। कोनो मन सादा फोटो म चिरहा-ओन्हा ल देखावत छापथे त कोनो ह रंगीन फोटो म बपरी के सुघरई ल नापत पेपर म लिखथे यहू नारी ये। अइसन समाचार ल पढ़ के समाज के दु चार झन नारी सेवा समिति के महिला कार्यकर्ता मन गजब विरोध करथे रैली निकालथे। हड़ताल करके पेपर म फोटो छपवाथे अउ कलेचुप बइठ जथे। नियाव मिलिस तभो ठीक, नई मिलिस तभो। महिला समिति वाली के तो जस बगरगे एक प्रकार के यहू नारी ये जेला देवी अउ जननी कइथन।
आज बजार के एक ठी चाहा दुकान चाहा पियत महू एक झन देवी के दरसन करेंव। कलकिथवा ओन्हा ल देह मे लपेटे रिहीस। चूंदी-मुड़ी बही बरन छरियाय रिहीस। रद्दा रेंगत-रेंगत, परे परे नाश्ता के कागत ल चाटत रिहीस। अपन बोटबोटहा आंखी म नास्ता खवइया मन ल देखत राहय। फेर काकरो से खाय पीये बर नई मांगिस। मैं सोक के मारे ओकर कोती एक ठन समोसा ल लमाएंव। हाथ के समोसा ल तो नई झोकिस फेर पलेट म परे रिहीस तेला टुप ले बिन लिस। मैं ओकर पेट डहर ल देख के केहेव- येहा नंगत के खापी के आहे तेकरे सेती नई खाथे। सरीर तो देख तो देख बड़ देह पांव वाली हे। मोर संग म एक झन रिहीस तेहा तिरिया दे हे के जानकार मानुस रिहीस। मोर संगी ह मोर गोठ ह काटत ओकर डहर इसारा करके किथे- ये हा प्रेगनेंट हे। अतका ल सुन के मोर मुंह ले हूं हां कांही नई निकलिस। बिना अक्कल बुध वाली, रंग-रूप म निच्चट कारी। चुंदी मुड़ी बस्सावथे। आखी म चिपरा मुंह म सीथा छबड़ाय हे। कोन येकर संग म मुंह करिया करे हे भगवाने जाने। मैं ओ नारी के कल्पना करते रेहेव की मोर संग म रिहीस तेन ह किथे- बाहिर ले कइसनो दिखे, काहीं पहिरे राहय फेर अंदर ले तो यहू पच्चीस साल के जवान नारी ये। यहू नारी ये फेर येकर समाज म कोनो सुनाई होवे। कोन जांच कराही की येकर कोख कइसे हरियागे। नारी सही दिखत ये पगली संग कोन अपन तन के गरमी जुड़ाइस। हादसा होही या बरपेली। का समझौता घलो हो सकथे? मन म सवाल ऊपर सवाल उठत हे। फेर जवाब के अभाव म ओ सवाल के कोनो अस्तित्व नई दिखथे। जतके कल्पना करत गेंव ओतके अऊ उलझत गेंव। मोर उलझन थिराए के पहिली उही चाय ठेला म ओ पगली के छेवारी पीरा उमड़गे। तीर तखार के दाई माई मन भीतरी म लेग के जचकी करईस। ओकर गर्भ ले स्वस्थ संतान के जनम होगे।
बिना अक्कल के ह घलो महतारी के सुख भोग डरिस। अपन तन के सरेखा करे के होस नईये, लइका के जतन ल कइसे करही बपरी ह। ओकर किस्मत म का हे कोन जाने। भीतरी ले लइका के रोए के आरो पाके मैं पूछेंव का होइस किके भीतर ले जवाब अइस- यहू नारी ये। घटना ल अतेक बेर ले खडे-ख़ड़े देखत मोला अपन आप म सरम आगे। काबर महूं तो इही समाज के एक अंग आंव। बेसरमी ल देखत मैं सोचेंव की कास ये घटना कोनो लेखक के कल्पना होतीस।
जयंत साहू
डूण्डा सेजबहार, रायपुर