हाल ही में श्री संजीव तिवारी के वेब मैगज़ीन गुरतुर गोठ में एक लेख पढ़ा था जिसमे लोटा के चलन के विलुप्त होने की बात कही गयी थी। चिंता सही हैं क्योंकि अब लोटे का चलन पारंपरिक छत्तीसगढ़ी घरो में उस तरीके से तो कम ही हो गया है जैसा शायद यहाँ पर पहले होता रहा होगा।
पर संयोग से इस लेख के पढ़ने के तुरंत बाद ही एक ऐसे इलाके में जाने मिला जहाँ लोटे की उपयोगिता वहां के छत्तीसगढ़ी समाज में देखने मिला। लगता है शायद वह भी लोटे का एक ख़ास उपयोग रहा होगा, क्योंकि जिनके बीच की मैं बात कर रहा हूँ वे लोग आज से लगभग 150 पहले छत्तीसगढ़ के करीबन 2500 किलोमीटर जाकर आसाम के चाय बागानों में बस गए थे।
मैं जैसे ही डिब्रूगढ़ में एक छत्तीसगढ़ी परिवार में पंहुचा। घर की मुखिया महिला कांसे के लोटे में जल लेकर आई। फिर असमिया में बोली, अरे ये तो जूता पहने हैं। फिर छत्तीसगढ़ी में मुझसे आग्रह कीं कि मैं जूते उतारूँ, उन्हें पैर धोने हैं। मैंने पैर धुलवाने से मना किया तो वह दुखी हुईं। अंत में समझौता हुआ, मैंने जूते खोले और उनसे निवेदन किया कि वे कुछ जल छिड़क दें।
वहां जिस घर में भी आप जायेंगे सबसे पहले लोटे में पानी दिया जाता है कि मुह हाथ पैर धो लिया जाये। फिर आप विराजें तत्पश्चात जलपान-भोजन करने बुलाने के लिए एक लोटा पानी लेकर आप को बुलाया जाएगा मतलब लोटे के पानी से हाथ मुह धोलें और भात खाने विराजें।
इस परम्परा से संधारक लगभग 20 लाख असम में रहने वाले छत्तीसगढ़ वंशियों में से कोई दो ढाई दर्ज़न लोगों के इस महीने के अंत में रायपुर आने की संभावना है जिनसे संवाद से लोटे के अलावा और भी बहुत सी बातें जानने को मिलेगा।यह भी जानने को मिलेगा कि इन 150 सालों में उनने क्या पाया,क्या खोया,क्या खोने का खतरा है और उनकी यहाँ से कुछ अपेक्षाएं है क्या।
-अशोक तिवारी
सुग्घर बात बतायेव तिवारी भैया