मैं जनम के बासी खावत हौं

नवजवान,तैं चल, मैं पीछु-पीछु आवत हौं,
कइसे चलना हे, बतावत हौं।
ताते-तात के झन करबे जिद कभू,
मैं जनम के बासी खावत हौं।
तोर खांध म बइठार ले मोर अनुभव ल
बस , मैं अतके चाहत हौं।
दूर नहीं मैं तोर से , मोर संगवारी,
पुस्तक म, घटना म, समे म,सुरतावत हौं।
पानी के धार बरोबर होथे जवानी,
सधगे त साधन बनगे, चेतावत हौं।
बइठे रहिबे त पछुआ जाबे खुद से,
सोंच ले, समझ ले, मैं बड़ पछतावत हौं।
फूटे फोटका जस फेर नइ मिलै समै दुबारा,
समै म सवार होके निकल जा, समझावत हौं।
आधुनिकता के चकाचौंध म आँखि चौंधियागे,
सम्भल के,अपन मूल झन भूल, रद्दा देखावत हौं।
देख तो अपन आघु-पाछु, डेरी-जउनी ल,
बाते – बात म तोर दुनिया सजावत हौं।
तोर ताकत अउ मोर समझ, संगवारी
हल हे हर समसिया के,नवा रद्दा हे,पतियावत हौं।
मिलके चलौ जी, हिल के रहौ जी,सब बढ़ौ जी,
मैं गीत सुनता के गावत हौं।

केजवा राम साहू “तेजनाथ”
बरदुली,पिपरिया, कबीरधाम
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3 Thoughts to “मैं जनम के बासी खावत हौं”

  1. प्रवीणसिन्हा

    बहुत ही अच्छा प्रयास हैं कविता का

    1. केजवा राम साहू / तेजनाथ

      धन्यवाद महोदय जी

  2. Mahesh Pandey

    बहुत सुंदर ,भावपूर्ण रचना ,साहू जी

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