तोला कोन रंग भाथे वो नोनी के दाई वोही रंग लाहूं मंय बिसा के। मोला जउने रंग भाथे हो बाबू के ददा। वोही रंग लाहा तू बिसा के ॥ लाली लाहूं लाल लगाहूं, नीला लाहूं रंग रंगाहूं, हरा लाहूं अंग सजाहूं, पींवरा लाहूं रंग मिलाहूं। कारी रंग लाहूं का बिसा के ! लाली लागय हो अंगरा अस नीला लागय हो बदरा अस, हरा लागय हो कचरा अस कारी लागय हो कजरा अस। पींवरा रंग लाहा झन बिसा के। लाली हे तोर मांथ के सेंदूर कारी हे तोर कारी चुंदी, हरा…
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पहिचान: भूपेंद्र टिकरिहा के कविता
छत्तीसगढ़ी मा लिखन, पढ़न, गोठियान, तभे जागही छत्तिसगढ़िया सान। अपढ़, गंवार जेला कहिथन अपन भाखा मा गोठियाथें, पढ़े लिखे नोनी बाबू मन बोलब मा सरमाथें, बेरा-बेरा म बखान करे बर थोरको झन सकुचान। हिन्दी बोलन, झाड़न कस के अंगरेजी, जउन जइसे ओकर बर ओइसने जी, अपन भाखा भाखे ले मया पिरित लागथे, जस अमरित समान सबले पहिली हम हिन्दुस्थानी तेकर पाछू आनी बानी, रिंग बिग सिगबिग फूल खिले हमर देस के इही कहानी, फुलवारी के हम कइसन फुलवा बोली-भाखा दय पहिचान। भूपेंद्र टिकरिहा छत्तीसगढ़ी भाषा के लेखक और साहित्यकार Chhattisgarhi…
Read Moreबाल साहित्य के पीरा
आजकल बाल साहित्य देखे म नई आवय। दूकान बाजार म लइका मन ल बने पुस्तक भेंट देना हे, सोच के कहूं पुस्तक मांगेस तव दूकान वाला सोच म पर जथे। कहिनी पुस्तक तो अब है नहीं। जेन हावय तेन दिल्ली प्रकासन के कुछ लोककथा सरिख पुस्तक मिलथे या फेर पंचतंत्र के कहिनी सरिख बड़े-बड़े जानवर मन के चित्र संग कहिनी चिक्कन पेपर म रहिथे। जेखर कीमत ल आन मनखे दे नई सकय।
Read Moreनाटक अऊ डॉ. खूबचंद बघेल
आज जरूरत हे अइसना साहित्यकार के जेन ह छत्तीसगढ़ के धार्मिक राजनैतिक अऊ सामाजिक परिवेस के दरसन अपन लेखन के माध्यम ले करा सकय। बिना ये कहे के मैं ह पहिली नाटककार आवं के कवि आंव। आज के कुछ लेखक मन ये सोच के लिखत हावंय के मैं ह कोन मेर फिट होहूं। जल्द बाजी म लिखे साहित्य आज के छत्तीसगढ़ के परिवेस के दरसन नई करावय। अइसना सबो लेखक नई करत हावंय फेर कुछ मन के इही स्थिति हावय। डॉ. खूबचंद बघेल ये छत्तीसगढ़ के धरती के पहिली नाटककार…
Read Moreभाईचारा अउ शांति के संदेश देथे ईद-उल-फितर
रोजा रखना फाका रखना नो हे, बल्कि येमा अल्लाह के अराधना, लोगन ले सद् बेवहार करना अउ गुनाह ले बचे के भाव हे। येमा अहसास हे कि गरीब मनखे मन कोन तरह ले भूख-पियास म सही के जिनगी बिताथे। ये भाव हर मनखे ल मनखे बने रहे के संदेश देथे। रोजा हर समे मन म शुभ-विचार देथे। सब के भीतर मानवता के भाव जगाथे अउ जीवन के उध्दार करथे। रोजा कोनो प्रक्रिया नो हे बल्कि ये हर सनमार्ग म जाय के बिधि आय। सबो धरम के परब अउ तिहार मन…
Read Moreगुरू जी अउ नाँग देवता के पीरा
आज बड़े मुंदरहा गुरू जी के नींद उचटगे। अलथी-कलथी देवत बिहिनिया होगे। जइसे कुकरा बासिस, गुरू जी हर रटपट उठ के तियार होय ल लगिस ”अइसे तो बड़े मुंदारहा ले गुरू जी हर कभू नई उठे सूरूज देव जब अगास में चढ़ जाथे तब इंकर बिहिनिया होथे?” अइसने सोंचत मास्टरिन हर ओला पूछ पारिस। ”आज का हो गे हे, बड़े बिहिनिया ले लकर-धकर तियार होवत हो?” मास्टरिन के सवाल ल सुन के गुरू जी हर अकबका गे। ओहर कहिस- ”तोला नइ मालूम का, आज 5 सितंबर हे?” ”5 सितंबर हे…
Read Moreपुस्तक समीक्षा : परिवार, व्यवहार अउ संस्कार के संगम ‘‘तिरबेनी‘‘
वीरेन्द्र ‘सरल‘ मनखे के काया में जउन महŸाम हिरदे के हे उही महŸाम साहित्य में कहानी के। कहानी कहंता के भाव अउ ढंग ह सुनइया के मन ला अइसे रमा देथय कि कहानी पूरा होय के पहिली मन ह अघाबे नइ करय। एक कहानी सिराथे तब मन ह दूसर कहानी सुने बर होय लागथे। फेर जब कोन्हो कहानीकार के लिखे कहानी ला पढ़ के कथा रस में डफोर के मजा लेना हे तब कहानी के भाखा अउ भाव के सबले जादा सजोर होना जरूरी होथे। भाखा कमजोरहा होथे तब कहानी…
Read Moreपुस्तक समीक्षा : जिनगी के बियारा म
वीरेन्द्र ‘सरल‘ गंवई-गाँव म बियारा ह ओ ठउर आय जिहां किसान चार महीना ले अपन जांगर तोड के कमाय के पाछू उपजे फसल ला परघा के लानथे अउ जिनगी के सपना ला सिरजाथे। इही फसल के भरोसा म कोन्हों अपन नोनी के बिहाव के सपना देखथे तब कोन्हों अपन बेटा बर दुकान खोले के। कोन्हों करजा के मषान ले मुक्त पाय के बात सोंचथे तब कोनहों अपन सुवारी के सिंगार करे बर गहना-गुरिया बिसाय के। बियारा म सकलाय फसल के भरोसा म मइनखे अपन जिनगी के किसम-किसम के ताना-बाना बुनथे…
Read Moreपंचलाईट
ख्मंच मा परकास, मुनरी अंगना ला बाहरत हावय अउ घरि घरि बाहिर कोति झांकत हावय, बाहिर लंग गोधन गाना गात हावय, कुछु देर पीछू मुनरी भीतरिया जाथे। , गोधनः- सोना देवें सुनार ला, वो पायल बना दीस। दिल देवें मुनरी ला, वो घायल बना दीस।। ख्मुनरी फेर अंगना मा आके बाहिर झांके बर लागथे, दूनोंझन के नजर मिलथे, मुनरी लजाथे, गुलरी आ जाथे। , गुलरीः- अरे मुंॅहझौंसी! गला उठाके एती ओती का देखत हस? मुनरीः- ख् घबरा के , कु— कुछु नींही दाई, बाहरत हों। गुलरीः- कतका घ बाहरबे, ख्…
Read Moreव्यंग्य : बड़का कोन
सरग म खाली बइठे बइठे गांधी जी बोरियावत रहय, ओतके बेर उही गली म, एक झिन जनता निकलिस। टाइम पास करे बर, गांधीजी हा ओकर तिर गोठियाये बर पहुंचके जनता के पयलगी करिस। गांधी जी ला पांव परत देखिस त, बपरा जनता हा अकबकाके लजागे अऊ किथे – तैं काकरो पांव पैलगी झिन करे कर बबा ….. अच्छा नी लगे। वइसे भी तोर ले बड़का कन्हो मनखे निये हमर देस म, तोला ककरो पांव नी परना चाही। गांधी किथे – तोर जय होय जनता जी। भारत म तोर से बड़का…
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