कहानी संग्रह : भोलापुर के कहानी

पूर्वावलोकन
डॉ. नरेश कुमार वर्मा

कुबेर की छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह ‘भोलापुर के कहानी’ में कुल चौदह कहानियां संग्रहित हैं। ये कहानियां वास्तव में किसी एक गांव की कहानी नहीं है अपितु छत्तीसगढिया लोगों की पीड़ा, शोषण , अस्मिता, संघर्ष और स्वाभिमान से ओतप्रोत कहानियां हैं जिनमें डेरहा बबा, राजा तरिया, संपत अउ मुसुवा, लछनी काकी, सुकारो दाई, घट का चौंका कर उजियारा, चढ़ौतरी के रहस, सरपंच कका, पटवारी साहब परदेसिया बन गे, साला छत्तीसगढ़िया, पंदरा अगस्त के नाटक, अम्मा हम बोल रहा हूं आपका बबुआ, मरहा राम के जीव अउ अंत म मरहा राम के संघर्ष कहानी सम्मिलित हैं।
‘कहानी जीवन की समस्याओं के सुलझाव का साधन है,’ – यशपाल का यह कथन ‘भोलापुर के कहानी’ के लिए सटीक बैठता है। कुबेर की प्रत्येक कहानी मानवीय जीवन की किसी न किसी समस्या से प्रारंभ होती है और निराकरण हेतु संकेत भी करती है।
पहिली कहानी ‘डेरहा बबा’ इक्कीसवीं सदी के स्वागत के साथ नई पीढ़ी में आये पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के विघटन पर व्यंग्य प्रहार करते हुए छुआछूत जैसे सामाजिक बुराई को रेखांकित करती है। गांव के पेटला महराज द्वारा छुआछूत मानने पर डेरहा बबा यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि – ‘‘इक्कीसवीं सदी म हो सकथे महराज ह छुआ माने के छोड़ दे होही, फेर अइसनो नइ होय रहय, सब जस के तस….। बबा कहिथे – ‘‘पचासेच बरिस म कइसे नवा सदी आही ?’’ इसी कहानी की ये पंक्तियां पाठक को सोचने विचारने को विवश कर देती है – ‘‘अब तो भाई ह भाई के मुंह देखना नइ चाहे अउ रूंधना रूंध डारथे। मया परेम अब तो तइहा के गोठ लागथे।’’
‘‘पढ-लिख के का बनत हव जी ? तुमन तो अंगरेज बन गेव तइसे लागथे।
‘‘साले टेसिया मन इक्कीसवीं सदी म खुसरिन होहीं।’’ आदि..
‘राजा तरिया’ कहानी में भोलापुर गांव की बसाहट के बहाने कथाकार ने समाज में व्याप्त उच्च वर्ग, निम्न वर्ग तथा पिछड़े वर्गों का उल्लेख करते हुए लिखा है – मंझोत ( पिछड़ा ) वाले मन के दसा सबले जादा खराब हे। येमन खालहे कोती देख के अपन आप ल ऊपर वाला समझथें तब ऊपर वाला मन कहिथें – ‘‘तुम साला सब नीचा।’’
राजा तरिया कहानी का केन्द्रीय भाव अंधविश्वापस पर केन्द्रित है जिसमें गांव के दो तालाबों का पानी सूख जाने पर समस्या निवारण का उपाय पेटला महराज के पुरखों के पास सुरक्षित है – ‘‘दुनों तरिया के बिहाव जब तक नइ होही, पानी कभू नइ मांड़य। वइसे भी सास्त्र के अनुसार बिना बिहाव करे तरिया के पानी से निस्तार नइ करना चाहिये।’’ इस कहानी में ग्रामीणें द्वारा स्वस्फूर्त किये जाने वाले वृक्षारोपण के महत्व का चित्रण दर्शनीय है – ‘‘तरिया के पार मन म चारों मुड़ा बर, पीपर अउ आमा के बिरवा लगाय गिस। गांव के सोभा अउ पहिचान, बर-पीपर के पेंड़ अउ आमा के बगीचा ले होथे।’’
‘संपत अउ मुसुवा’ कहानी गांव के सबसे सुंदर नारी फुलबासन के चरित्र को उद्घाटित करती है, जिसका पति सुंदरू हमाली करते हुए भी उनकी सभी मांगों को पूरा करता है। कारण साफ है – ‘‘फुलबासन के मोहनी म सुंदरू ह तो मोहाएच हे, गांव भर के बुड़वा-जवान मन घला मोहाय हें।’’ चाहे गांव का वैद्य – बैगा मुसुवा राम हो चाहे संपत महराज। अर्थात – ‘‘मुसुवा राम ह नांगनाथ आवय त संपत महराज ह सांपनाथ हरे।’’ फुलबासन के साथ कई लोगों के अवैध संबंध का पर्दाफास इस कहानी में है – ‘‘मुसुवा राम ह फुलबासन देवी के मंदिर म नरियर चढ़ाय बर पहुंच गे। मुंहाटी बंद रहय। जइसने खोले के उदिम करिस , अपने-अपन खुल गें संपत महराज ह तोलगी भीरत सुटुर-सुटुर निकलत रहय। दुनों के दुनों हड़बड़ा गें।’’
‘लछनी काकी’ कहानी गांवों में व्याप्त टोनही अंधविश्वास रूपी अभिषाप के खिलाफ जागरूकता लाने के उद्देश्य’ से लिखी गई हैं। बीस साल पहले भी इस गांव में टोनही का आरोप मढ़कर एक निर्दोश महिला की हत्या हुई थी। वही कहानी फिर दोहराई जा रही थी। संपत और मुसुवा अपने हवस और स्वार्थ की पूर्ति के लिए, अपने चरित्रहीन चेहरों के मुखौटौं को बनाए रखने के लिए सारा षडयंत्र रचते हैं परंतु आधुनिक विचारधारा वाले पढ़े-लिखे सरपंच की सूझबूझ एवं अकाट्य तर्कों तथा मेडिकल की पढ़ाई कर रहे रघ्घू के चिकित्सकीय ज्ञान की वजह से षडयंत्र का पर्दाफास होता है। सत्य यह था कि फुलबासन अपनी चरित्रहीनता के कारण लाइलाज एड्स से ग्रस्त होकर मरने वाली है। वह इसे टोना-जादू का रूप देकर अपनी चरित्रहीनता को छिपाना चाहती है।
नारी जीवन की पीड़ा, वेदना और व्यथा की कहानी का नाम है सुकारो दाई और उसके सुख-दुख की साक्षी है नंदगहिन। दोनों के वार्तालाप से कहानी आगे बड़ती है। सुकारो अपनी बहु के जल्दी मां नहीं बनने को लेकर भगवान को दोश देती है। नंदगहिन उनको समझाती है – ‘‘बहिनी, नारी हो के नारी बर अइसन बात झन सोंचे कर। बहु ह घला बेटिच आय। सोला आना बहु पाय हस। 000 अउ दुसरइया बिहाव करइया के किस्सा ल भुला गेस क ? सुरता कर मुरहा के, का हाल होय रिहिस ?’’ वास्तव में दो बीवी वाले मुरहा की अंतर्कथा ने इस कहानी को अधिक रोचक बना दिया है। सुकारो का पढ़ा-लिखा बेटा किसुन जल्दी बच्चा नहीं चाहता। तभी तो नंदगहिन नर्स के मार्फत कहती है, ‘‘पहला बच्चा अभी नहीं दो के बाद कभी नहीं।’’
‘घट का चौका कर उजियारा’ आत्मबोध की कहानी है, जिसमें नंदगहिन के बीमार पड़ने पर उसकी बेटी द्वारा उसकी प्राण रक्षा के लिए कबीर साहेब को बदना बदा जाता है। पहुंचा हुआ महंत चौका करने आमंत्रित है। उसे अपने ज्ञान का अहंकार है। दारू की एक पुरानी बोतल में तेल देखकर वह क्रोधित हो जाता है और नंदगहिन से कहता है – ‘‘तंय सिरिफ अनपढ नइ हस, मूरख अउ अज्ञानी घला हस। अपन धरम के नास तो करिच डारेस, अब गुरू के धरम के नास करे बर सोंचत हस ?’’ नंदगहिन के तर्कपूर्ण और मासूम जवाब से महंत साहेब को आत्मबोध होता है।
‘चढ़ौतरी के रहस’ कहानी में व्यंग्यात्मक प्रहार है। भागवत कथा की चढ़ौतरी में कम चढ़ावा आने पर वृंदावन का पंडित दुखी है। झाड़ू गंउटिया का समधी अपने सवालों से उसे निरूत्तर कर देता है। यहां धरम-करम की आड़ में होने वाले आर्थिक शोषण को अनावृत्त किया गया है।
‘सरपंच कका’ कहानी जहां एक ओर पंचायती राज व्यवस्था की पोल खोलती है तो दूसरी ओर लखन, ओम प्रकाश, फकीर, चंदू और रघ्घू जैसे नवयुवकों की सृजनात्मक योगदान एवं ग्राम विकास को रेखांकित करती है। इस कहानी की सुंदरता इस बात में नीहित है कि जहां एक ओर सरपंच स्वयं की गलती स्वीकार करते खुद पंचायत से क्षमायाचना करता है परंतु पंचायत कहती है कि – ‘‘आप ल क्षमा नइ मिल सकय। काबर कि हम तो आप ल कभू गलत बनाएच नइ हन।’’
पढ़ाई और नौकरी के लिए आय तथा जाति प्रमाण-पत्र बनवाना टेढ़ीखीर है। ‘पटवारी साहब परदेसिया बन गे’ कहानी में पटवारी द्वारा किसानों के आर्थिक शोषण को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस कहानी के माध्यम से किसानों को एन किसानी के दिन में प्रमाण-पत्र बनवानें में होने वाली व्यवहारिक कठिनाइयों को भी रेखांकित किया गया है। रतनू के इस कथन में कि – ‘‘किसान के तो मुस्किल हो जाथे। पानी गिरइ तो भगवान के हाथ म रहिथे, फेर स्कूल खोले के काम तो सरकार के हाथ के बात आय। वो हर तो आगू-पीछू कर सकथे।’’ किसानों की सारी विवषता परिलक्षित होती है।
‘साला छत्तीसगढ़िया’ कहानी में परदेसिया दुकानदारों द्वारा सथानीय दुकानदारों को यह कहकर गाली दिया जाता है, कि -’’ गांव के जितने छत्तीसगढ़िया दुकानदार है, सब सालों ने रेट खराबकर दिए हैं।’’ यह सुनकर रतनू जवाब देता है – ‘‘समझगेंव, बने कहत हस तंय। विही मन हमर सगा आवंय। हमर छत्तीसगढ़िया भाई आवंय। तुमन हमर का लगथो जी ? तुमन तो इहां बेपार करे बर आय हव।’’
‘पंदरा अगस्त के नाटक’ कहानी विषुद्ध रूप से संदेष प्रधान कहानी है जिसमें प्रामीणों द्वारा दारू, गुड़ाखू, बिड़ी सिगरेट आदि का सेवन नहीं करने तथा इस लत की पूर्ति हेतु खेत-खार नहीं बेचने का संकल्प लिया जाता है। इस कहानी में इस सामाजिक बुराई को खत्म करने में महिला स्व सहायता समूह की महिलाओं की शक्ति को महत्व दिया गया है।
बाहरी अधिकारियों द्वारा सीधे-सरल छत्तीसगढ़िया लोगों के अपमान एवं शोषण की मुखर अभिव्यक्ति हुई है ‘‘ अम्मा हम बोल रहा हूं आपका बबुआ’ कहानी में। बड़े साहब का यह कथन कि – ‘‘ये साला लोकल जिनिसवा से अउ लोकल आदमी से हमला बहुतेरा नफरत होत है।’’ छत्तीसगढ़ियों के शोषण की पराकाष्‍ठा है। बड़े साहब और उनकी अम्मा का फोन में बातचीत इस कहानी की आत्मा है। अम्मा का यह कथन कि – ‘‘सच बबुआ ! ऊहां के लोग का इतने सीधे,  इतने बेवकूफ होत हैं? यकीन नहीं होत है बचुआ कि आज की दुनिया में भी कोई इतना बेवकूफ लोग रहत होहीं।’’ सचमुच छत्तीसगढ़ियों के लिए करारा प्रहार है कि अब तो अपने शोषण का विरोध करना सुरू करो। यह विरोध सुरू भी हो गया है, चाहे प्रतीक रूप में मरहा राम द्वारा बड़े साहब के सबसे प्रिय और जड़ रोप चुके पौधे पर कुठाराघात द्वारा ही सही।’
भोलापुर के कहानी’ की प्रतिनिधि कहानी है ‘मरहा राम के जीव’। इसे पढ़कर हरिशंकर परसाई की ‘भोलाराम का जीव’ एवं ‘मैं नर्क से बोल रहा हू’ व्यंग्य का सहसा स्मरण हो आता है। इस कहानी में छत्तीसगढ़ राज बनने के बाद तीव्र औद्योगीकरण, बाहरी पूंजीपतियों का प्रभुत्व , छत्तीसगढि़यों का शोषण एवं उत्पीड़न की मार्मिक एवं उत्तेजक अभिव्यक्ति हुई है। जोगेन्दर सेठ के अत्याचार और आतंक को देखकर हरि ठाकुर की ये पंक्तियां याद आ जाती है –
‘‘लोटा ले के आने वाला, इहां टिकाइन बंगला।
जांगर टोर कमइया बेटा, हे कंगला के कंगला।’’
किस प्रकार मरहा राम की हत्या की जाती है और किस प्रकार उसके भूख से मरने का प्रोपेगंडा किया जाता है वह सब यमराज के दरबार में सपष्‍ट हो जाता है। भगवान मरहा राम को उत्तेजित करते हुए कहता है – ‘‘जउन दिन तंय अपन दिमाग म सोंचे लगबे, अपन हक बर लड़े लगबे, शोषण अउ अन्याय के बिरोध करे लगबे तउन दिन मंय तोल अपन तीर बला लेहूं। इंटा मारइया बर पथरा उठा लेबे, हाथ उठइया के हाथ ल मुरकेट सकबे, आंखी देखइया के आंखी ल निकाल सकबे तउन दिन तोर बर सरग के मुंहाटी ल मंय खोल देहूं।’’ यही भाव इस कहानी का रहस्य है।
अंतिम कहानी ‘मरहा राम के संघर्ष ’ में शोषण , अन्याय व अत्याचार के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष का आह्वान है। इस कहानी में भोलापुर गांव के सारे पात्र एक स्थान पर नजर आते है। मरहा राम के संघर्ष के आह्वान पर गांव के सारे लोग एकजुट होते नजर आते हैं। इस कहानी में प्रोफेसर वर्मा की उपस्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। कहानीकार की स्पष्ट मंशा है कि शोषित वर्ग की लड़ाई में प्रबुद्ध वर्ग को भी अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी ही होगी। प्रोफेसर वर्मा का आंदोलनकारियों को संबोधित करते हुए कहना कि – ‘‘नशाखोरी बंद करो …..। जइसे खाय अन्न, तइसन होय मन। एक रूपिया अउ दू रूपिया के अन्न खा-खा के हमर मन घला दु कौड़ी के हो गे हे। बंद करो येला। एक रूपिया म मांगना हे त खाद मांगव, बीज मांगव, अपन खेत बर पानी मांगव।’’ इस प्रकार निर्भीक मरहा राम के नेतृत्व में संघर्ष का एलान होता है।
इस कहानी संग्रह की सभी कहानियों के पा़त्र एक ही हैं, एक ही गांव के हैं इसलिए मुझे लगता है कि आरंभ में कहानीकार की योजना उपन्यास लिखने की रही होगी, परंतु किसी कारणवश घटनाओं का पृथक करण करके इसे कहानी संग्रह का रूप दे दिया गया होगा। कुछ भी हो इस संग्रह की कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद योजना, वातावरण की सटीक अभिव्यक्ति, कहावतों और मुहावरों का लाक्षणिक प्रयोग सरल-सहज और पात्रानुकूल हैं। इन सबके साथ भाषा सुंदर और प्रवाह युक्त तथा कहानियां सजीव बन पड़ी है। कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने ही वातावरण में विचरण कर रहे होंगे, अपनी ही समस्याओं से दो-चार हो रहे होंगे। सभी कहानियां आपकी अपनी कहानियां हैं आपके गांव की कहानियां हैं।

डॉ. नरेश कुमार वर्मा
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
शास. ग. अ. स्नातकोत्तर महाविद्यालय
भाटापारा, जिला – रायपुर ( छ. ग. )
मो. – 98278.77895

किताब के आघू भाग सरलग …..

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