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छंद

बृजलाल प्रसाद शुक्ल के सवैया

अब अंक छत्तीस ल लागे कलंक हे, कैसे छोड़ाये म ये छुटही।
मुख मोरे हावे पीठ जोरे हवै, गलती गिनती के है का टुटही॥
मुखड़ा जबले गा नहीं मुड़ही, तबले गा तुम्हार घरो फुटही।
फुटही घर के लूट लाभ ले हैं, तुम ला चुप-चाप सबो लुटही ॥
तोरी मोरी जोरी के जे है बात, ये छोड़े बिना संग ना छुटहीं ।
लिगरी ल लगाय लराई के घात, के टनटा ट रे बिन ना टुटही॥
मुंह देखी के बोली ल छांडे बिना, घर के घर भेद नहीं फुटहीं।
फुटही न कभू टुटही जुटही तब, को न कहां तुम ला लुटही॥
बात बने के बिचार करव अब, अंक छत्तीस के गा मुख मोरव।
तीन के ठउर म छै के रखव अंक, छै के जघा तीन का तुम जोरव॥
देखते देखते गा तुंहार हियां बनगे अब तो कतको कंगला।
फटहीं फुटही टुटही जे रहे, तिन के कुरिया बनगे बंगला॥
बैर के बीजा ले फूट फरे फर, खा के बचा न सकेव अंग ला।
तुम सीधा सादा भोकवा भकला, जकला रे बिगारेव अपन ढंग ला॥
नां के अक्षर जोरे न जानव, छाप अंगूठा लगाये सिखेहव।
गांव के जोर गंवा के गंवारीम, पारे गोहार, बताये, लिखे हव॥
दांव गिराये सदा गिर के पटकाये, परे पर पांव दिखे हव।
छांव कभू सुख के न खुंदेव जिनगी दुख के चटनी ल चिखे हव॥

बृजलाल प्रसाद शुक्ल
Brijlal Prasad Shukl