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कविता

कविता : बुढ़ापा

एके झन होगे जिनगी रिता गे
रेंगे बर सफर ह कठिन होगे
जिये बर अउ मया बर जीव ललचथे
निरबल देह गोड़ लड़खड़ाते
आंखी म अपन मन बर
असीस देवथे हमर बुजुर्ग मन
जेला बेकार अउ बोझ समझेंन
एक ठन कोनहा ल उंखर घर बना देन
सिरतोन म बुढ़वा होना बोझ हरे
घर परिवार बर बिधन बाधा हरे
आज के पढ़ें लिखे लोग बर
आवव सोचव अउ विचार कर
काबर काली हमरो बारी हे
इही मोहाटी ले गुजरे के हमरो पारी से

ललिता परमार
बेलर गांव, नगरी