कविता : नवां अंजोर अउ जाड़

नवा अंजोर आही एकर अगोरा हे, मोर छत्तीसगढ़ धान के कटोरा हे। जुन्ना गइस सरकार, राज सुघ्घर चलाइस हे, नवा सरकार ह उजयारी के सपना देखाइस हे। अब सपना के पूरा होवत ले अगोरबो परजा तन्त्र निक हे सबला परखबो। तुंहर भी जय हो हमरो घलो जय हो लोगन के सेवा आगु जम्मो के विजय हो। जाड़ अबड़ लागत हे जाड़ संगी हाड़ा कपकपात हे। आँखि नाक दुनो कोती ले पानी ह बोहात हे।। अंगेठा सिरा गे भुर्री बुझागे रजाई के भीतरी खुसर के नींद ह भगागे।। संम्पन्नता के स्वेटर…

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डर

सोंचथौं, कईसे होही वो बड़े-बड़े बिल्डिंग-बंगला, वो चमचमावत गाड़ी, वो कड़कड़ावत नोट, जेखर खातिर, हाथ-पैर मारत फिरथें सब दिन-रात, मार देथें कोनों ला नइ ते खुद ला? अरे! वो बिल्डिंग तो आवे ईंटा-पथरा के, कांछ के, वो कार तो आवै लोहा-टीना के, अउ कागज के वो नोट, वो गड्डी आवै। वो बिल्डिंग आह! डर लगथे के खा जाही मोला, वो कार, डर लगथे, वो जाही मोरे उपर सवार, डर लगथे पागल बना दिही मोला वो पइसा। डर लगथे निरजीव ईंटा-पथरा, कांछ, लोहा-टीना,कागज के बीच घिर के, निरलज्ज, निरजीव झन हो…

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मदरस कस मीठ मोर गांव के बोली

संगी – जहुरिया रहिथे मोर गांव म हरियर – हरियर खेती खार गांव म उज्जर – उज्जर इहां के मनखे ,मन के आरुग रहिथें गांव म खोल खार हे सुघ्घर संगी बर ,पीपर के छांव हे संगी तरिया – नरवा अऊ कुंआ बारी गांव के हावे ग चिन्हारी किसिम – किसिम के इहां हावे मनखे सुख – दुख के इहां हावे साथी गांव म दिखथे ग मया – दुलार दाई – ददा के चोहना बबा के डुलार तुलसी के चौरा म मंदिर के दुवार म दुख पीरा गोहराथन छोटे बड़े…

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याहा काय जाड़ ये ददा

समझ नइ आवत हे,याहा काय जाड़ ये ददा…! जादा झन सोच,झटकुन भुररी ल बार बबा…! अपने अपन कांपाथे,हाथ गोड़…! चुपचाप बइठ,साल ल ओड़…! कोन जनी कती,घाम घलो लुकागे हे…! मोला तो लागत हे,उहू ह जडा़गे हे…! आज नइ दिखत हे,चंवरा म बइठइया मन…! रउनिया तपइया,रंग-रंग के गोठियइया मन…! बइरी जाड़ ह,भारी अतलंग मचावत हे…! सेटर,कथरी म घलो,आहर नइ बुतावत हे…! पारा,मोहल्ला होगे,सुन्ना-सुन्ना…! डोकरी दाई चिल्लावत हे,सेटर होगे जुन्ना…! गोरसी म दहकत हे,आगी अंगरा…! बइठे बर घर म,होवत हे झगरा…! डोकरा बबा घेरी-भेरी,चुल्हा ल झाकत हे…! चाय पीये बर मन ह,ललचावत…

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मोर छत्तीसगढ़ के माटी

गुरतुर हावय गोठ इहाँ के, अऊ सुघ्घर हावय बोली। लइका मन ह करथे जी, सबो संग हँसी-ठिठोली।।‍ फुरसद के बेरा में इहाँ, संघरा बइठे बबा- नाती। महर-म‌हर ममहाये वो, मोर छत्तीसगढ़ के माटी।। बड़े बिहनिया ले संगी, बासी ह बड़ सुहाथे। आनी-बानी नी भावय, चटनी संग बने मिठाथे।। ईज्जा-पिज्जा इहाँ कहां, तैहा पाबे मुठिया रोटी। महर-म‌हर ममहाये वो, मोर छत्तीसगढ़ के माटी।। गैस ले बड़ सुघ्घर संगी, चूल्हा के भात खवाथे। घाम के दिन बादर म, आमा के चटनी ह भाथे।। मटर-पनीर नी मिलय, पाबे किसम-किसम के भाजी। महर-म‌हर ममहाये…

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मनखे गंवागे

मनखे गंवागे गांव के शहर के देखाईं म गांव भुलागे स्वारथ के अंधियारी खाईं म।। इरिषा अनदेखना बाढ़ गे डाह धरिस हितवाही म। पिरीत परेम के दिया बुतागे, आग लगिस रुख राई म। खेत खार ह परिया होगे यूरिया के छिचाई म मनखे गंवागे शहर म जाके अंधाधुंध कमाई म। पहुना के सम्मान गंवागे नारी के अधिकार लुटागे। नदिया तरिया के गुरतुर पानी भाखा के मिठास गंवागे। पुरखा के संस्कार गंवागे अंगना के बंटवाई म संगी मितान के विश्वाश गंवागे भेद के दहरा खाइ म मेला मड़ई के झुला गवांगे…

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दारू के गोठ

जेती देखबे तेती, का माहोल बनत हे। सबो कोती ,मुरगा दारू के गोठ चलत हे।। थइली म नइहे फूटी कउड़ी,अउ पारटी मनाही। चांउर ल बेंच के, दारू अउ कुकरी मंगाही।। मुरगा संग दारू ह,आजकाल के खातिरदारी हे। खीर पूड़ी के अब, नइ कोनो पुछाड़ी हे।। दारू के चक्कर म, छोटे बड़े के नाता ल भुलागे। आधा मारबे का कका,कइके मंगलू ह ओधियागे।। नंगत कमाय हे कइके, बेटा बर लानत हे ददा ह। अब तो संगे संग म पीयत हे, कका अउ बबा ह।। होवत संझाती भट्ठी म, भारी भीड़ दिखत…

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राजिम नगरी

पबरीत हावे राजिम नगरी, परयाग राज कहलाऐ। बिच नदीया में कुलेश्वर बईठे, तोरेच महीमा गाऐ।। महानदी अऊ पईरी सोंढ़हू, कल-कल धारा बोहाऐ। तीनों नदीया के मिलन होगे, तीरबेनी संगम कहाऐ।। ब्रम्हा बिष्णु अऊ शिव संकर, सरग ऊपर ले झांके। बेलाही घाट में लोमश रिषी, सुग्घर धुनी रमाऐ।। राजिव लोचन तोर कोरा मं बईठे, सुग्घर रूप सजाऐ। राजिम के दुलौरिन करमा दाई, तोर कोरा मं मांथ नवांऐ।। राम लखन अऊ सिया जानकी, तोर दरश करे बर आऐ। वीर सपूत बजरंग बली, तोरे चवंर डोलाऐ।। तोर चरण मं कलम धरके, गोकुल महीमि…

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माटी के मया

अब तो नइ दिखय ग, धान के लुवइया। कहाँ लुकागे संगी, सीला के बिनइया। दउरी,बेलन ले, मुँह झन मोड़व रे…..। माटी संग माटी के, मया ल जोड़व रे…..।। बोजहा के बंधइया, अब कहाँ लुकागे। अरा-तता के बोली, सिरतोन नदागे। गाडा़, बइला के संग ल, झन तुमन छोड़व रे…..। माटी संग माटी के, मया ल जोड़व रे…..।। होवत मुंधरहा संगी, पयरा के फेकइ। आज घलो सुरता आथे, बियारा के सुतइ। धर के कलारी, पयरा ल कोड़व रे…..। माटी संग माटी के, मया ल जोड़व रे…..।। केशव पाल मढ़ी (बंजारी) सारागांव, रायपुर…

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सबो नंदागे

कउवा के काँव काँव। पठउंहा के ठउर छाँव। भुर्री आगी के ताव। सबो नदागे।। खुमरी के ओढ़इ। कथरी के सिलइ। ढेकना के चबइ। सबो नदागे।। हरेली के गेड़ी चढ़इ। रतिहा म कंडील जलइ। कागज के डोंगा चलइ। सबो नदागे।। नांगर म खेत जोतइ। बेलन म धान मिंजइ पइसा बर सीला बिनइ। सबो नदागे।। ममा दाई के कहानी किस्सा। संगवारी संग खेलइ तीरी पासा। मनोरंजन के गम्मत नाचा। सबो नदागे।। रेडियो के समाचार सुनइ। सगा ल चिट्ठी लिखइ। सिलहट पट्टी म लिखइ-पढ़इ। सबो नदागे।। टेंड़ा म पानी पलोइ। ढेंकी म धान…

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