तोर अगोरा मा रात पहागे,
देखत-देखत आँखी आ गे।
काबर तँय नइ आए ओ जोही,
आँखी आँसू मोर सुखागे।।1।।
दिन-दिन बेरा ढरकत जावै,
तोर सूध मा मन नइ माढ़े।
गोड़ पिरागे रद्दा देखत,
कुरिया तीर दुवारी ठाढ़े।।2।।
सपना देखत रात पहावँव,
गूनत-गूनत दिन बित जावै।
चिन्ता मा महुँ डूबे रहिथौं,
अन-पानी नइ घलो खवावै।।3।।
दुनिया जम्मो बइरी लागै,
दया-मया नइ जानै संगी।
का दुख ला मँय तोला काहौं,
मोरो मन नइ मानै संगी।।4।।
जिनगी मोरो ओखर बस में,
काहीं कुछु नइ भावय मोला।
होय अबिरथा दुनिया मोरो,
कइसे बाँचय ए तन चोला।।5।।
शब्दार्थ:- तोर=तुम्हारी,अगोरा=राह देखना, गोड़=पैर, काबर=क्यों,बेरा ढरकत =समय बीतना,कुरिया=घर,दुवारी=द्वार,ठाढ़े=खड़े, रद्दा=रास्ता, ओखर=उसकी, भावय=पसन्द।
– बोधन राम निषाद राज
व्याख्याता पंचायत”वाणिज्य”
सहसपुर लोहारा,कबीरधाम(छ.ग.)