बसंत उपर एक छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल

आ गे बंसत कोयली गात घलो नइ हे।
संगी के गोठ अब , सुहात घलो नइ हे।

सेमर न फूले हे, न परसा ह डहकत हे,
आमा के माऊर हर, भात घलो नइ हे।

हाथ मा हाथ धर, रेंगे जउन मोर संग,
का होगे ओला, बिजरात घलो नइ हे।

मनखे ले मनखे दुरिहावत हावै संगी,
मीत अउ मितान आत-जात घलो नइ हे।

अड़बड़ सुग्घर हे ‘पर’ गाँव के टूरी हर,
भौजी हर काबर, अब लुहात घलो नइ हे।

बलदाऊ राम साहू

Share
Published by
admin