एक भिखारी बिहनिया भीख माँगे ल निकलिस। निकलत बेरा ओ ह अपन झोली म एक मुठा चना डार लीस। कथें के टोटका या अंधविश्वास के सेती भिक्षा मांगे बर निकलत समें भिखारी मन अपन झोली खाली नइ रखयं। थैली देखके दूसर मन ल लगथे के एला पहिली ले कोनो ह दान देहे हे। पून्नी के दिन रहिस, भिखारी सोचत रहिस के आज भगवान के किरपा होही त मोर ये झोली संझकुरहे भर जाही।
अचानक आगू ले देश के राजा के सवारी आत दिखिस। भिखारी खुश हो गइस। ओ सोचिस के, राजा के दर्शन हो जाही अऊ दान तको मिलही, जेकर से मोर सब्बो दलीद्री दूर हो जाही, जीवन सँवर जाही।
जइसे-जइसे राजा के सवारी तीर आत जाए, भिखारी मने मन म मगन होत जाए। जइसेच राजा के रथ भिखारी के आगू आइस, राजा ह अपन रथ रुकवाइस। रथ ले उतर के राजा ओखर आगू खड़ा हो गए। भिखारी के तो मानो साँसेच रुके लगिस, सोंचे लागिस राजा अपन सोनहा हार ल अब दिही रे। फेर राजा ह ओला कुछ देहे के बलदा, उल्टा अपन दूनों हाथ के पसरा ओखर आगू फइला दीस, अऊ खुदे भीख मांगे लगिस।
भिखारी ल समझ म नइ आइस, के का करे जाए। अभी वो सोचतेच रहिस, के राजा ह फेर कहिस ‘महराज भिक्छा देवव न’। उदुपहा भिखारी ह अपन झोली म हाथ डारिस, मूठा म चना ल धरिस। फेर हमेशा दूसर मेर ले लेवइया, वोकर मन ह देहे बर राजी नइ होइस, बांधे मूठा खोल दीस। राजा टुकुर-टुकुर देखत रहिस, पसरा फइले रहिस। भिखारी जइसे-तइसे अंगरी म दू दाना चना के निकालिस अऊ राजा के फइले हथेली म डार दीस। राजा के सवारी नहाक गे, भिखारी मने मन राजा ल गारी देवत आगू बढ़ गए।
ओ दिन भिखारी ल रोज ले जादा भीख मिलीस, फेर दिन भर ओ ला चना के दू दाना के बड़ मलाल रहिस। संझा घर आके जब ओ ह झोला लहुटाईस त अकचका गए। चना के दू दाना सोना के हो गए रहिस। ओ समझ गए के ये दान के महिमा के सेती सोना के हो गए, अब वो पछताए लागिस। ओ बेरा राजा ल पूरा एक मूठा चना दे देना रहिस, हाय रे जिवछुट्टा मन, नइ दे सकेस, काबर के देहे के आदत रहिस नहीं।
नीति कथा के भावानुवाद – संजीव तिवारी