……हमर संस्कीरिती, हमर परंपरा अउ हमर सभ्यता हमर पहिचान ये।हमर संस्कीरिती हमर आत्मा ये।छत्तीसगढ़ के लोक परब, लोक परंपरा, अउ लोक संस्कीरिती ह सबो परदेस के परंपरा ले आन किसम के हावय।जिहाँ मनखे-मनखे के परेम, मनखे के सुख-दुख अउ वोखर उमंग, उछाह ह घलो लोक परंपरा के रूप म अभिव्यक्ति पाथे।
जिंनगी के दुख, पीरा अउ हतास, निरास के जाल म फंसे मनखे जब येकर ले छुटकारा पाथे, अउ जब राग द्वेस से ऊपर उठ के उमंग अउ उछाह ले जब माटी के गीत गाथे अउ हमन खुसी ल जब मनखे चार के बीच म खोल देथे तब छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य अउ लोकगाथा सुवा, करमा, ददरिया, पंथी, राऊत नाचा,चंदैनी, भोजली, गेड़ी, बाँसगीत, गौर, सरहुल, मांदरी, दसरहा माटी के सिंगार कहाथे। ये जम्मो नृत्य केवल मनोरंजन के साधन नोहय…..बल्कि हमर हिरदे के अंदर के बात ल कहे के साधन घलो हरय।हमर भाव हमर कला के माधियम ले लोकमानस के बीच आथे।….तब मनखे-मनखे के बीच के दूरी दुरिहा जथे….अउ भेदभाव ल भुलाके…मनखे जब एके स्वर मे गाथे तब उही बेरा लागथे कि परंपरा मनखे ल मनखे ले जोड़े के काम करथे।
फेर आज के कलजुगिया जमाना म हमर परंपरा अउ हमर संस्कीरिती ह दिनो दिन नंदावत हे।
जेन चिंता के बिसय हरे।आज मनखे माया-मोह के जाल म अतेक अरझ गे हे, कि अपन पुरखा के समय ले चले आवत तिहार-बार के महत्तम ल घलो समझ नइ पावत हे। अपन सभ्यता ल खुदे भुलावत हे।
हमर छत्तीसगढ़ म सबले बड़का तिहार के रूप म मनईया तिहार “देवारी” ल ही ले, ले…..पहली कस कुछू सोर नइ राहय अब गाँव म।……तिहार बार के दिन घलो गाँव गली मन सुन्ना-सुन्ना लागथे।
गाँव-गाँव म मातर, गोबरधन पूजा के मनाय के तरीका ह घलो बदलत जात हे।…..मांतर जेकर मतलबे हे मात के मदमस्त होके उमंग उछाह ले मनाय के तिहार हरय। पहिली हमन नानकिन राहन मातर देखेे ल जान गड़वा बाजा अउ मोहरी के सुर म मन घलो बइहा जवय। पान खावत जब परी मन नाचय, कौड़ी के कपडा़ पहिरे, खुमरी ओढ़हे, पाहटिया मन जब सज के निकलय तभे लागय आज मातर हरय।
फेर अब के समे म न पहिली कस दोहा परइया राऊत मिलय न पहिली कस बाजा के बजइया।
जब ले बैंड बाजा ह पाँव पसारिस तब ले हमर कान के सुने के तरीका ह घलो बदल गे हे।
एक जमाना रहिस जब पंदरा दिन पहिली ले मनखे मन घर दुवार के छबई-मुदई, लिपई-पोतई चालू कर देवय। फेर आज मनखे के सोच म फरक आ गे हे। गाँव के नोनी मन घरो-घर सुवा नाचे के चालू कर देवय।फेर आज खोजे ल लागथे सुवा के नचइया मन ल।तभो ले मिलय नहीं।…..कतेक कहिबे आज तो दिया बाती के जलाय के तरीका ह घलो बदलत हे।मनखे रंग-रंग के झालर अउ लाईट ले घर दूवार ल सजावत हे,चमकावत हे फेर मन मंदिर के अंधियार ल अंजोर नइ कर पावत हे।
संस्कीरिती जिंदा हे, सभ्यता जिंदा हे बस संस्कार जिंदा नइ हे। त संगवारी हो पाश्चात्य संस्कीरिती के चक्कर म झन पड़व….अउ अपन परंपरा ल झन छोड़व।अपन संस्कीरिती म अपन छत्तीसगढ़ के दरसन करव….छत्तीसगढ़ के तीज-तिहार अउ लोकपरंपरा ल बचा के राखव…तभे हमर छ्त्तीसगढ़ के मान ह बाढ़ही।
केशव पाल
मढ़ी(बंजारी)सारागांव,
रायपुर(छ.ग.)
9165973868
बहुत बढ़िया आलेख
बधाई हो पाल जी