मोर गांव के नाम भोलापुर हे। पहिली इहां सौ छानी रिहिस होही। अब कतको छानी के दू-दू , चार-चार टुकड़ा हो हो के गिनती दू सौ ले ऊपर हो गे होही। छानी बंटा गे, खेत-खार घला बंटा गे। मन तो पहिलिच बंटा जाय रहिथे। मन बंटाइस तंहा ले गांव घला बंटा गे। अब घर अउ घर,, आदमी अउ आदमी के बीच बेर्रा बबूर के ढ़ेंखरा रुंधावत कतका देर लगही। पहिली बखरिच बियारा म रुंधना रुंधाय, बोंता बिरवा के रक्छा खातिर। अब तो भाई ह भाई के मुंह देखना नइ चाहे अउ रुंधना रूंध डारथे। मया-परेम अब तो तइहा के गोठ लागथे।
दू साल पहिली के बात आय। सन दू हजार के पहिली वाले रात, दुनिया जब इक्कीसवीं सदी म परवेस करिस, भोलापुर गांव घला, मुसवा जइसे भुस ले बिला म खुसरथे, इक्कीसवीं सदी म खुसर गे। मुसवा ठहरिस निसाचर, वोकर कारोबार रातेच म जम सकथे। इक्कीसवीं सदी काबर रात म आइस होही ?
गांव के जम्मों टूरा मन दू दिन पहिलिच ले इक्कीसवीं सदी म ओइले के तियारी म लगे रहंय। बेलबेलावत-इतरावत घरो घर जावंय अउ चंदा मांगंय। डेरहा बबा घर घला आइन। डेरहा बबा अपन घर के चांवरा म बिड़ी पीयत बइठे रहय, पूछ परथे, ‘‘कस बाबू हो, ये इक्कीसवीं सदी काला कहिथे जी ?’’
‘‘तुम देहाती लोग क्या समझोगे? तुम्हारे दाई-ददा लोग तुम लोगों को पढ़ाये लिखाये होते तब न समझते ?’’ एक झन टेसिया मुंहा टुरा, जउन ह कालेज पढ़े बर जाथों कहिके पांच साल हो गे हे, सहर जाथे अउ चाहे रेंगत रहय कि दंउड़त रहय, बात-बात म हवा म किरकेट खेलत रहिथे, हाउज दैट, हाउज दैट कहिके चिल्लावत रहिथे, तउन ह पथरा मारे कस जवाब दिस।
डेरहा बबा के जीव कलप गे। पहिली के लइका मन अपन ले बड़े मन के लिहाज करंय। अब के मन ल तो बड़े-छोटे के कोई लिहाज नइ हे। रघू अउ किसन के सुरता आ गे। वहू मन इहिच गांव के लइका आवंय। वो मन तो अइसन नइ हें। सबो एके बराबर नइ होवंय। कहे गे हे, ‘जइसन-जइसन घर दुवार,वइसन-वइसन खरपा, जइसन-जइसन मां-बाप तइसन-तइसन लइका।’ गुस्सा अउ अपमान ल समोस के कहिथे – ‘‘हमर दाई-ददा मन हमला नइ पढ़ाइन बाबू हो, हमन देहाती बन गेन जी। तुमन तो पढ़त-लिखत हो। पढ़ लिख के का बनत हव जी? तूमन तो अंगरेज बन गेव तइसे लगथे।’’
बेसरम टुरा मन ल का लगतिस। लात के देवता कहीं बात म मानहीं? इतरावत-जिबरावत स्कूल कोती चल दीन।
सांझ होइस। सब झन स्कूल म सकला गें। स्कूल तीर के बिजली खंबा मन म बड़े-बड़े पोंगा रेडियो बंधा गे। परछी म अलमारी सरीख डग्गा मांड़ गे। चकमकी लाइट लग गे। झालर गुंथा गे। बिजली लाइन म तार फंसा के डारेक्ट लाइन खींच डरिन। फेर का पूझना हे? सुरू हो गे पोंगा, भंाय-भांय। विडियो लाने रहय, वहू सुरू हो गे। एक डहर चुल्हा जल गे। रंधई-गढ़ई घला सुरू हो गे। खाइन-पीइन, रात भर वीडियो देखिन, नाचिन-कूदिन, गजब हा हा, ही ही करिन। रात भर जागिन, गांव भर ल जगाइन। देवारी म नइ फूटय ततका फटाका फोरिन।
दूसर दिन दस बजे गुरू जी मन आइन। स्कूल खोलिन। तरवा धर लिन। बड़े-बड़े बोतल जतर कतर फेंकाय परे रहंय। जूठा-काठा के मारे गोड़ धरे के जगा नइ रहय। किहिन -’’साले टेसिया मन इक्कीसवीं सदी म खुसरिन होही। निसानी छोंड़ के गे हें।
गांव के कोनों आदमी नींद भर नइ सुत सकिन। डेरहा बबा घला नइ सुत सकिस। सब कोइ्र जान गें कि हमर गांव ह आज रात म इक्कीसवीं सदी म खुसर गे। इक्कीसवीं सदी के रंग-ढंग ल घला जान गें। डेरहा बबा ह जनम के चरबज्जी उठइया मनखे। उठ के चारों मुंड़ा तुक तुक के निहारे कि आज कोई जिनिस बदले होही का? फेर कुछू बदलाव वोला नइ दिखिस। रोज जइसन होथे, वइसनेच आजो होवत रहय। बियारा मन म दंउरी चलत रहय। पनिहारिन मन बोfरंग म ठकर-ठकर पानी भरत रहंय। पहटिया ह गरू-गाय ल खेदारत खरकाडांड़ डहर लेगत रहय। पेटला महराज ह तरिया कोती ले हरे राम, हरे कृश्ण कहत, कच्चा कपड़ा पहिर के, लदलद-लदलद कांपत आवत रहय।
पेटला नाम ह महराज के बढ़ावल नाम हरे। वोकर असली नाम पं.राधा रमण मिश्रा आय। गजब धरम-करम के मनइया। दिन भर माला फेरत रहिथे। उमर ह सत्तर साल ले कम नइ होही।स्कूल मास्टरी ले रिटायर होय हे तब ले गांवेच म रहिथे। रोज सांझ के चार बजे चांवरा म चटाई-कमरा बिछ जाथे। आसन लग जाथे। आसन के आगू रही ऊपर लाल बस्तर म लपटाय रमायन ह बिराजित हो जाथे। केसरिया धोती पहिरे, रामनामी दुसाला ओढ़े, मुंड़ म पगड़ी अउ माथा म तिलक लगा के, एक हाथ म तम्बूरा अउ दूसर हाथ म चटका धर के महराज ह परगट होथे। पीछू-पीछू बाई मन, कोई मंजीरा धर के त कोई्र खंजेरी धर के आथे, अपन-अपन जगा म बइठथें अउ सुरू हो जाथे भक्ति रस के धारा बोहाय के। गांव भर के जम्मों बुजरुग सियान मन राम कथा सुने बर सकला जाथें। डेरहा बबा अउ मरहा राम एकर परमानेंट श्रोता आवंय। कड़कड़ंउवा ठंड के दिन। महराज के कंपई के का पूछना। सियाना सरीर कतेक ल सहे। ष्लोक बोलत रहय कि चौपाई, कुछू समझ नइ आवत रहय। डेरहा बबा दुरिहच ले अजम गे कि पेटला महराज ह असनान कर के आवत हे। दुनों हाथ जोर के कहिथे – ‘‘पांय लागंव देवता।’’
मुंहझुलझुलहा के समय। महराज अपन सुर म रहय। डेरहा बबा ल देख नइ पाइस। झकनका गे। दू हांथ पीछू घूंचिस। किहिस – ‘‘खुस रह, खुस रह।’’
डेरहा बबा ह सोंचत रिहिस, इक्कीसवीं सदी म हो सकथे महराज ह छुआ माने के छोंड़ दे होही, फेर अइसनो नइ होय रहय। सब जस के तस। कहीं कोई रत्ती भर घला हेर फेर नइ दिखिस। बबा कहिथे – ‘‘पचासेच बरिस म कइसे नवा सदी आही?’’
ओती उत्ती अगास म सुरूज देवता ह झांके लगिस।
कुबेर
(कहानी संग्रह भोलापुर के कहानी से)