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कविता गीत

धनी धरमदास के सात छत्तीसगढ़ी पद

(1)
पिया बिन मोहे नीक न लागै गाँव।
चलत चलत मोर चरन दुखित भे, आँखिन पर गै धूर।
आगे चलौ पंथ नहिं सूझै, पाछे परै न पॉव।
ससुरे जावँ पिया नहिं चीन्है, नैहर जात लजावै।
इहाँ मोर गाँव, उहाँ मोर पाही, बीच अमरपुर धाम ॥
धरमदास बिनवे कर जोरी, तहाँ गाँव ना ठाँव ॥

(2)
साहेब बूड़त नाव अब मोरी
काम क्रोध के लहर उठत हे, मोह-पवन झकझोरी |
लोभ मोरे हिरदे घुमरत हे, सागर वार न पारी ॥
कपट के भँवर परे हे बहुते, वों में बेड़ा अटके |
काल फाँस लिये हे द्वारे, आयौ सरन तुम्हारी ।।
धरमदास पर दाया, कीन्हीं, काट फंद जिव तारी।
कहै कबीर सुनौ धर्मन, सतगुरु सरन उबारी॥

(3)
आज घर आये साहब मोर
हुलसि हुलसि घर अँगना बहारौ, मोतियन चौक पुराई।
चरन धोय चरनामृत ले के, सिंहासन बैठाई॥
पाँच सखी मिल मंगल गावै, सबद में सुरति समाई।
बांधागढ़ के अमिन बिनवै, धनि हो कबीर गोसाई ॥
आमिन – धर्मदास की पत्नी का नाम।

(4)
गुरु बिन कोन हरै मोर पीरा
रहत अलीन मलीन जुगन जुग राई बिनत पायेंव एक हीरा।
पायेंव हीरा रहै न धीरा, लेइ के चलेंव वोहि पारख तीरा॥
सो हीरा साधू सब परखे तब से भयेव मन धीरा।
धरमदास बिनवै कर जोरी, अजर अमर गुरु पाये कबीरा॥

(5)
भव सागर नदिया बहुत अगम हे
केहि बिधि उतरौ पारा हो
ये भव देख जिया मोर काँपै
नैन बहै जल धारा हो
वार पारा कछ सूझत नाही
मोह लहर झकझोरा हो
देखौ नाव न दैखौ बेरा
नहिं देखौ खेवनहारा हो
येहि औसर प्रभु केका’ गोहरावौ
बूड़त हौ मझधारा हो
असी कोस बालू के रेतिया
असी कोस अँधियारा हो
असी चार चौरासी जोजन
जहँवा जम रखवारा हो
जोग जाप एको नइ कीन्हा
ना गुरु से व्यौहारा हो
खाल खींच जम भूसा भरिहै
बढ़ई चलावै, जस आरा हो
कहै कबीर सुनौ धर्मदासा
अपने जनहिं उबारा हो

(6)
पिया परदेसिया, गवन ले जा मोर ॥
आव भाव के अनवटः बिछिया
सब्द के घुँघरू उठे घनघोर॥
तन सारी, मन रतन लहँगवा
ज्ञान के अँगिया भये सराबोर।
चार चना मिल लेय चले हें
जाय उतारे जमुनिया के कोर ॥
धरमदास बिनवे कर जोरी
नगरी के लोग कहै कुल-बोर॥

(7)
मोर हीरा हेराय गै कचरे में
कोई पूरब कोई पश्चिम बतावै कोई बतावै पानी पथेरे में ।
पंडित वेद पुरान बतावै उरझ रहे जग झगरे में ॥
सुर नर मुनि अठ अवलिया भूल गये सब नखरे में।
धरमदास गुरु हीरा पाये बाँध लिये निज आँचरे में? ॥