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कविता

झाड़ फूंक करलौ जी लोकतंत्र के

कोलिहा मन करत हे देखव सियानी,
लोकतंत्र के करत हे चानी चानी।
जनम के अढहा राजा बनगे,
परजा के होगे हला कानी।

भुकर भुकर के खात किंजरत,
मेछराय गोल्लर कस ऊकर लागमानी।

अंधरा बनावत हे लोकतंत्र ल,
रद्दा घलो छेकावत हे।
कऊवा बईठे महल के गद्दी,
हँस देख बिलहरावत हे।

महर महर महकय लोकतंत्र ह,
अईसन बनाय रिहीस पुरखा मन।
बईरी बनके आगे कलमुवा,
अंधरा कनवा अऊ नकटा मन।

सिरतोन केहे तै नोनी के दाई,
खटिया म पचगे मिहनत के पाई।
भागजनी ह राजा बनथे,
करम के फुटहा चुर चुर मरथे।

उलटा जमाना उलटा नियांव,
मिहनत करैईया के होवत हे घाव।
गरकट्टा मन खुल्ला घुमय,
फक्कड़ झूलय फंदा म।

मोर देश हाबे धान के कटोरा,
छानही में चढ़के नेता भुजत हे होरा।
नोहय गरीबहा के लोकतंत्र भाई,
पोठ लऊठी के जबर लड़ाईI

झाड़ फूक अब करलौ जी तुमन,
घोलन के अजादी के पाव परलौ जी।
आँखी फूटय अंधरा मन के,
इलाज करावव थोरकुन लोकतंत्र के।

विजेंद्र वर्मा अनजान
नगरगाँव (धरसीवां)
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