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गोठ बात

महाकवि कपिलनाथ कश्यप के ‘रामकथा’ के कुछ अंस

कैकेयी वरदान
भरतलाल के गादी सुन दुख होथे तुंहला,
मांग-मांग कहके फोकट गंधवाया मोला।
रोवा झिन अब कहिस कैकयी खुबिच रिसाके,
अइसन लगथे लाये, मोल बिसाके ॥1॥
तपसी मन अस भेख बनाके,
बन नहीं जाही राम बिहनिया।
मैं महुरा खाके मर जाहंव,
ले के राम अवध तूं रइया॥ 2॥

डोंगहा संवाद
डोंगा मा बइठा के मैं नंदिया नहकाथंव,
लइका मन ला पोसे बर मजदूरी पाथंव।
बिन डोंगा के का आने धंधा मैं करिहंव,
नइ जानंव मैं कूच्छू बिन मारे के मरिहवं॥1॥
तूहूं तो ये भव सागर ले पार लगाथंव,
बिन धोये नहकइन-मन डोंगा बइठाथंव।
निच्चट धोधो के उन ला सागर नहकाथा,
उनकर ले तब तूं नहकवनी कतका पाथा॥2॥
बिना कुछुच नहकवानी लेये,
कर देहंव मैं गंगा पार।
महाराज नहकवनी अतके,
करिहा तूं मोला भवपार॥ 3॥
देख राम-सीता-लछिमन ला,
झट ले देइन हांस।
जो मन आवय कर ले केंवट,
झिनकर अब उपहास॥ 4॥

लंका दहन
महल हवेली लंका के सब जरगे,
भगत विभीसन के घर खाली रहगे।
जइसन करथे वो वोकर फल पाथे,
हाय-हाय कर बिगड़े ले पछताथे ॥1॥
निसाचरिन सब रो-रो गारी देवंय,
बेर्य बेन्दगर लेसिस सब कह रोवंय।
भड़वा लंका आके का कर देइस,
कउन पाप के वोहर बल्दा लेइस ॥2॥
गिंजर-गिंजर के हनूमान,
लंका ला लेस समुन्द मा कूदिस।
सीता सो लेके चिनहा अब,
वापिस जाये के झट सूंझिस ॥3॥

सीता के अगिन परिच्छा
देख राम-लछिमन ला झट सीता सकुचाइन,
सोच अपन करनी ला वो मन मा दुख पाइन।
हाथ जोर के कहिन आर्य हावय ये इच्छा,
धरम पतीवरता के चाहव दिये परिच्छा॥1॥
लंका मा रह नारि धरम ला,
आइस होही चिटकी आंच।
चिता बइठते तन जर जाही,
आंच न आये पाही सांच॥2॥

राम राज
वैर भाव कउनो के मन मा,
कुछू न रहगे राम राज मा।
बन पहार के पसु पंछी मा,
घर-बाहिर मानुस समाज मा॥1॥
सदा जीवन खान-पान सबके बड़ सादा,
आइस कभू न कउनो के सरीर मा बाधा।
अपन-अपन धंधा मा रह सुमरंय हरि मनमा,
चारी चुगली ले रह अलग-मगन सब मनमा॥2॥
परजा-राज करमचारी मा भेद न चिटको,
त्याग करे के अवसर चाहे आवय कतको।
पर दुख-सुख के राखंय फिकर अपन ले जादा,
आये कभू न देइन राज काज मा बाधा॥ 3॥
राम राज मा नीत धरम के,
उमा! नित्त दिन बाजय बाजा।
सुख सागर मा प्रजा नहावंय,
रामचंद्र अस पा के राजा॥4॥

kapilnath-kashyap
Kapil Nath Kashyap