“मारो मारो”के कोलहार ल सुन के महुं ह खोर डाहर निकलेव।एक ठन सांप रहाय ओखर पीछु म सात-आठ झन मनखे मन लाठी धऱे रहाय। “काय होगे”में केहेव।”काय होही बिसरु के पठेवा ले कुदिस धन तो बपरा लैका ह बांच गे नी ते आज ओखर जीव चले जातिस”त चाबिस तो नी ही का गा काबर वोला मारथव”
“वा काबर मारथव कहाथस बैरी ल बचाथस आज नी ही त काली चाब दीही ता””हव गा एला छोड़े के नो हे मारव “अइसे कहिके भीड़ ह वोला घेर डारिन।तभे वो सांप ह कते डाहर बुलक दीस ते पता नी चलीस।जम्मो झन थक-हार के पिकरी खाले बैठ गिन उही करा महादेव के मूर्ति रहाय।थोर कुन बेर के बाद मया ठेठवार ह हुरहा चिल्लाइस”महादेव के ढेंटु म सांप लपटाय हे”जम्मो झन वो डाहर देखिन,एहा तो उही सांप हरय।
“महादेव के जय हो””महादेव के जय हो”काय देखत हस फूल पान,नरिहर,दूध के कूढ़ा होगे।जेखर जान के दुश्मन रिहीन उही मन ओखर पूजा करते।
फरक मात्र ठौर के हरे काली भुइंया म रिहीस आज मुड़ी म हावे।
ललिता परमार
बेलर गांव, नगरी