मानसून मा : कुकुभ छंद

फिर माटी के सोंधी खुशबू,फिर झिंगुरा के मिठ बानी।
मानसून मा रद रद रद रद,बादर बरसाही पानी।

छेना लकड़ी चाउँर आटा,चउमासा बर जतनाही।
छाता खुमरी टायच पनही,रैन कोट सुरता आही।

नवा आसरा धरे किसानन,जाग बिहनहा हरषाहीं।
बीज-भात ला जाँच परख के,नाँगर बइला सम्हराहीं।

गोठ किसानी के चलही जी,टपराही परवा छानी।
मानसून मा रद रद रद रद,बादर बरसाही पानी।

मेछर्रा बत्तर कीरा मन,भुलका फूटे घर आहीं।
बोटर्रा पिंयर भिंदोल मन,पँड़वा जइसे नरियाहीं।

अहरू बिछरू के डर रहही,घर अँगना अउ बारी मा।
बूढ़ी दाई टीप खेल ही,लइका के रखवारी मा।

मच्छर बढ़ही गाँव शहर मा,बिकही बड़ मच्छर दानी।
मानसून मा रद रद रद रद,बादर बरसाही पानी।

चूरत भजिया देख बबा हर,चूल्हा तीरन घोर्राही।
लालच लहुट जही बचपन के,दुवे-चार भजिया खाही।

दिन बूड़त खा पी के जिनगी,दसना ऊपर सुसताही।
बिजली करही आँख मिचौली,छिन आही छिन मा जाही।

नदिया नरवा मन उफनाहीं,धरती रँग धरही धानी।
मानसून मा रद रद रद रद,बादर बरसाही पानी।

सुखदेव सिंह अहिलेश्वर”अँजोर”
गोरखपुर,कवर्धा
13/03/2018
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