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कविता

धूंका-ढुलबांदर: रवीन्‍द्र कंचन

बादर
नवां छवाये मांदर !
धातिन्‌ तिनंग
तीन दहांदा
पानी बरसे
गादा-गादा
हर-हर चले
खेत म नांगर!
मोती-जइसे
बरसे पानी

भीजे कुरिया
भीजे छानी

रूख तरी छैहावय
साम्हर !
आल्हा-भोजली
जंगल गावे
बेंगचा-झिंगरा
तान मिलावे
नाचत हे
धूंका-ढुलबांदर
होगे अब
अंधियार के पारी
छिंटकत हावे
कोला-बारी

रात के हॉथ म
करिया-काजंर।

रवीन्‍द्र कंचन