लोककथा : कउंवा करिया काबर होईस

एक बखत के बात आय। एक झन मुनि के कुटिया म एकठन कौआ हे तऊन सुग्घर मुनि के तीर म रहिके जूठा-काठा खावत अपन जिनगी ल पहावत रहय। कहे जाथे कि ओ बेरा म कौआ के तन हा सादा रिहिस हे। एक दिन मुनि हा कौआ ल कहिथे, ‘हे कौआ मय तोर बर एक ठन बुता जोंगे हंव करबे का?’ कौआ कहिथे, ‘का बुता आय मुनिजी।’ मुनि कथे, ‘ये एक अइसे बुता आय जेमा पूरा संसार के हित होही।’ संसार के हित ल सुनिस त कौआ खुशी के मारे गदगद…

Read More

फेर दुकाल आगे

आंखी होगे पानी-पानी मन हा मोर दुखागे रद्दा जोहत बरसा के आसाढ़ घलो सिरागे कइसे बदरा उड़ियात आही रूख-राई घलो कटागे अइसन हम का पाप करेन बरूण देव घलो रिसागे धान हा बोआये नईहे अऊ बियासी के बेरा आगे रद्दा जोहत बरसा के भुंइया घलो थर्रागे नई सुनावय टर-टर बोली लागे मेचका घलो नंदागे पूजा-पाठ ला करत-करत कुकुर घलो बिहागे पइसा के जमाना पाके कोठी हा सुखागे का खाबो पेट भरे बर सफ्फा धान हा बेंचागे शहर कोती रद्दा पाके बनिहार घलो नंदागे कइसे करबो गुजर बसर महंगाई घलो झपागे…

Read More

अब के गुरुजी

का बतावंव बेटा, मोरो टुरा हा तोरेच कक्छा या पढ़थे रे। फेर ओ हा पढ़ई-लिखई मा कक्छा म दूसरइया नंबर मा हे अउ तयं पहिली नंबर मा। त मोर कोनहो जेवनी हाथ के अंगूठा ला कटवा देतेंव, ते मोर टुरा हा कक्छा मा पहिली नंबर मा आ जातिस रे।गुरु पूर्णिमा के दिन रिहिस। गुरु हा अपन जम्मो शिष्य मन ला दिक्छा देवत रिहिस अउ जम्मो सिस्य मन हा गुरुजी ला मुंह मांगा दक्छिना देवत रहय। अइसने मा एक झन शिस्य आघू मा आइस अऊ कहिस- गुरूजी मय तोर शिस्य अंव…

Read More