बृजलाल प्रसाद शुक्ल के सवैया

अब अंक छत्तीस ल लागे कलंक हे, कैसे छोड़ाये म ये छुटही। मुख मोरे हावे पीठ जोरे हवै, गलती गिनती के है का टुटही॥ मुखड़ा जबले गा नहीं मुड़ही, तबले गा तुम्हार घरो फुटही। फुटही घर के लूट लाभ ले हैं, तुम ला चुप-चाप सबो लुटही ॥ तोरी मोरी जोरी के जे है बात, ये छोड़े बिना संग ना छुटहीं । लिगरी ल लगाय लराई के घात, के टनटा ट रे बिन ना टुटही॥ मुंह देखी के बोली ल छांडे बिना, घर के घर भेद नहीं फुटहीं। फुटही न कभू…

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