साला छत्तीसगढि़या

‘‘इसकुल खुले महिना भर हो गे, लइका ह रात दिन रेंध मतावत हे, तंय का सुनबे? तोर कान म तो पोनी गोंजा गे हे। पेन-कापी लेय बर कहत हे, ले नइ देतेस।’’ देवकी ह अपन नंगरिहा रतनू ल झंझेटिस। रतनू ह कहिथे – ‘‘हित लगा के दू कंवरा बासी ल तो खावन दे भगवान। पेन-कापी ह भागत थोरे हे। कालिच बांवत उरकिस हे। हांथ म एको पइसा नइ हे। खातू-दवाई घलो अभिचे लेना हे। निंदइ-कोड़इ ल आन साल जुर मिल के कर डारत रेहेन, फेर पर साल ले तो बन-झार…

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पटवारी साहब परदेसिया बन गे

दिन भर नांगर के मुठिया धरइ अउ ओहो त..त..त.. कहइ म रग रग टूट जाथे। ढलंगते साट पुट ले नींद पर जाथे। फेर आज तीन दिन हो गे हे रतनू के नींद उड़े। मन म जिंहा चिंता फिकर समाइस तहा न तो नींद परे अउ न भूख लगे। रात आंखी म पहावत हे। बात बड़े जबर नो हे। बुता छोटे हे, फेर रतनू बर विही ह पहाड़ कस हो गे हे। कोट-कछेरी अउ पुलिस निस्पेक्टर के सपड़ म पड़े से तो बड़े-बड़े के होस गुम हो जाथे, फेर इहां अइसनो…

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गनेसी के टुरी

आज संझा बेरा पारा भर म षोर उड़ गे – ‘‘गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे…………..।’’ परतिंगहा मन किहिन – ‘‘काबर अइसने ठट्ठा करथो जी? ओली म पइसा धरे-धरे fकंजरत हें, fतंखर लोग-लइका मन कुछू नइ बनिन; गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे? वाह भइ ! सुन लव इंखर मन के गोठ ल।’’ हितु-पिरीतू मन किहिन – ‘‘अब सुख के दिन आ गे ग गनेसी के। अड़बड़ दुख भोगत आवत हे बिचारी ह जनम भर।’’ तिसरइया ह बात ल फांकिस – ‘‘अरे, का सुख भोगही अभागिन ह? बेटी के जात,…

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सरपंच कका

सांझ के बेरा रिहिस। बरदी आवत रहय। गरमी के दिन म संझा बेरा तरिया के पार ह बड़ सुहावन लगथे। किसुन अउ जगत, दुनों मितान टुरा घठौंदा के पथरा मन म बइठ के गपसप करत रहंय। थोरिक पाछू लखन, ओमप्रकाश , फकीर अउ चंदू घला आगें। बैठक जम गे। नवयुवक दल के अइसनेच रोज बैठक होथे। गपसप के बहाना तरह तरह के चर्चा होवत रहिथे। सहर के टाकीज मन म कोन कोन नवा फिलिम लगिस। गांव म काकर घर का होवत हे। कोन कोन टुरा-टुरी के बिहाव माड़ गे, काकर…

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चढौत्तरी के रहस

अभी हमर गांव म भागवत कथा होइस। मोर जानती म इहां अइसन जग पहिली अउ नइ होय रिहिस। डोकरा सियान मन कहिथें कि पैतिस चालिस साल पहिली झाड़ू गंउटिया के डोकरा बबा मरिस त अंतू गंउटिया ह ए गांव म वोकर बरसी बर भागवत जग रचाय रिहिस। अतराब म वोकर किस्सा आज ले परसिध्द हे। डेरहा बबा ह घला बताथे। बताथे त अइसे लगथे कि वो ह विही जुग म वापिस चल दे हे। एक-एक ठन सीन के बरनन करथे। बताथे कि गंउटिया के बरसी ह ठंउका बैसाख के महीना…

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घट का चौका कर उजियारा

कातिक पुन्नी के दिन आय। नंदगहिन के घर म गजब उछाह मंगल होवत हे। जम्मांे सगा-सोदर मन सकलाय हें। दूनों बेटी-दमाद, सबो नाती-नतनिन, भाई-भतीज, ननंद-डेड़सास, गंगाजल-महापरसाद, हितू-पिरीतू सब आय हें। बिहिनिया सातेच बजे पोंगा बंधा गे। भांय-भांय बाजे के सुरू घला हो गे। दू ठन खोली अउ एक ठन परछी। घर अतकिच अकन ताय। बखरी म अबड़ दूरिहा ले चंदेवा लगा के रांधे-गढ़े, मांदी-पंगत के बेवस्था बना देय हें। पलास्टिक के कुरसी लग गे हे, दरी-तालपत्री सब जठ गे हे। रंधइया-गढ़इया मन साग-पान, चांउर-दार, लकड़ी-फाटा के बेवस्था म लगे हें।…

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सुकारो दाई

सुकारो अपन घर मुहाटी के आगू आंट म बइठ के मेरखू के गोंटी मन ल बीनत रहय। मेरखू बिनइ हर तो बइठे बिगारी बुता आवय, वो तो नंदगहिन के रस्ता देखत रहय। दिन के बारा बजे के बेरा रिहिस होही, अग्घन-पूस के घाम, बने रुसुम-रुसुम लगत रहय। देखत देखत घंटा भर हो गे, घाम ह घला बिटौना लगे लगिस। नंदगहिन के दउहा नहीं। सुकारो ह गोठियाय बर कलकलात रहय। जी उकुल-बुकुल होय लगिस। मने मन कहिथे – ‘कहां झपाय होही रोगही मन ह आज। नंदगहिन ह नइ हे त नइ…

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लछनी काकी

सोवा परे के बेरा हो गे रहय फेर सुते कोनों नइ रहय, जइसे ककरो अगोरा म बइठे होवंय। संपत, मुसवा, नानुक अउ एक दु झन जउन मन खुद ल गांव के सियान मानंय, घंटा दु घंटा ले अघात सोंच विचार करिन अउ कोतवल ल हाका पारे के आडर कर दिन। संपत अउ मुसवा ,गांव के fभंयफोर सियान आवंय। इंखर बिना न ककरो नियाव होवय न गांव म बइसका बइठे। संपत ह ता थोडिक़-बहुत पढ़े घला हे, मुसवा तो काला अक्षर भंइस बराबर हेे। फेर गांव के मनखे मन ल बांध…

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संपत अउ मुसवा

उतेरा एसो गजब घटके रहय। माड़ी-माड़ी भर लाखड़ी, घमघम ले फूले रहय। मेड़ मन म राहेर ह घला सन्नाय रहय। फर मन अभी पोखाय नइ रहय, फेर बेंदरा मन के मारे बांचय तब। फुलबासन ह सुक्सा खातिर लाखड़ी भाजी लुए बर खार कोती जावत रहय। मेड़ के घटके राहेर के बीच चिन्हारी नइ आवत रहय। हरियर लुगरा, हरियरेच पोलखा, राहेर के रंग म रंग गे रहय। राहेरेच जइसे वोकर जवानी ह घला सन्नाय रहय। फुलबासन, जथा नाम, तथा गुन। फूल कस सुंदर चेहरा। पातर, दुब्बर सरीर। कनिहा के आवत ले…

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राजा तरिया

भोलापुर गांव के जमीन न तो सरलग अउ सोझहा हे,अउ न चिक्कन-चांदर हे। खोधरा-डिपरा ले पटाय हे, बारा मरोड़ के भूल-भुलइया हे। मंदिर ह डोंगरी के टिप म बने हे त जइत खाम ह खाल्हे तला म। ऊपर डहर ऊपर पारा, खाल्हे कोती खाल्हे पारा अउ बीच म मंझोत पारा। खाल्हे पारा वाले मन बर ऊपर डहर मूंड़ी उचा के देखना तको अपराध रहय,चढ़े के तो बातेच मत सोंच। फेर सारकारी नियम कानून अउ बदलत जमाना के असर के कारण अब बड़े-बड़े खोधरा-डिपरा मन पटावत आ गे हे। ऊच-नींच के…

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