कविता : बुढ़ापा

एके झन होगे जिनगी रिता गे रेंगे बर सफर ह कठिन होगे जिये बर अउ मया बर जीव ललचथे निरबल देह गोड़ लड़खड़ाते आंखी म अपन मन बर असीस देवथे हमर बुजुर्ग मन जेला बेकार अउ बोझ समझेंन एक ठन कोनहा ल उंखर घर बना देन सिरतोन म बुढ़वा होना बोझ हरे घर परिवार बर बिधन बाधा हरे आज के पढ़ें लिखे लोग बर आवव सोचव अउ विचार कर काबर काली हमरो बारी हे इही मोहाटी ले गुजरे के हमरो पारी से ललिता परमार बेलर गांव, नगरी

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नान कुन कहानी : ठौर

“मारो मारो”के कोलहार ल सुन के महुं ह खोर डाहर निकलेव।एक ठन सांप रहाय ओखर पीछु म सात-आठ झन मनखे मन लाठी धऱे रहाय। “काय होगे”में केहेव।”काय होही बिसरु के पठेवा ले कुदिस धन तो बपरा लैका ह बांच गे नी ते आज ओखर जीव चले जातिस”त चाबिस तो नी ही का गा काबर वोला मारथव” “वा काबर मारथव कहाथस बैरी ल बचाथस आज नी ही त काली चाब दीही ता””हव गा एला छोड़े के नो हे मारव “अइसे कहिके भीड़ ह वोला घेर डारिन।तभे वो सांप ह कते डाहर…

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