कविता : जोंधरा

भुईया वाले रे होगे बसुन्दरा । परोसी झोलत हावय जोंधरा ।। लोटा धर आईन मीठ-मीठ गोठियाईन हमरे पीड़हा पानी हमरे ला खाईन कर दीन पतरी मा भोंगरा । घर गय दुवार गय, गय रे खेती खार हमन बनिहार होगेन, उन सेठ साहूकार बांचीस नहीं रे हमर चेंदरा । सुते झन राहव रे अब त जागव चलव संगी जुरमिल हक ला मांगव खेदव रे तपत हॉंवय हुड़का बेंदरा । -राजकमल सिंह राजपूत दर्री – थान खम्हरिया मो. 9981311462

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