मया के पहिली-पहिली चघे हे निसा,
मन झुमै , नाचै , गावै रात – दिन.
आवत हे,साँस-साँस जीए के मजा,
मन झुमै , नाचै , गावै रात – दिन.
अपने आप हांसत हौं,अपने आप रोवत हौं,
आनी-बानी रँग-रँग के , सपना संजोवत हौं.
पिया के ! घेरी – बेरी आवय सुरता…
मन झुमै , नाचै , गावै रात – दिन .
बिंदिया लगावत हौं , रूप ला सजावत हौं,
सोलहों सिंगार कर के , दर्पण निहारत हौं.
लाजवौं ! हाथ-मा लुका के चेहरा….
मन झुमै , नाचै , गावै रात-दिन .
बिन देखे मन तरसै , देखे लजावत हौं,
जाने का हो गे हे ? बही होत जावत हौं.
करवं का ? आके समझा रे मितवा….
मन झुमै , नाचै ,गावै रात – दिन.
अरुण निगम
१०५, शम्भू -श्री अपार्टमेन्ट,
एम्.आर.रोड ,विजय नगर,
जबलपुर
बहुत सुन्दर छत्तीसगढी कविता ( गीत) अरूण भाई को बधाई।