बाम्हन चिरई ल आज न भूख लगत हे न प्यास । उकुल-बुकुल मन होवत हे। खोन्धरा ले घेरी-बेरी निकल-निकल के देखत हे। बाहिर निकले के चिटको मन नइ होवत हे। अंगना म, बारी म, कुआँ-पार म, तुलसी चंवरा तीर, दसमत, सदा सोहागी, मोंगरा, गुलाब, अउ सेवंती के फुलवारी मन तीर, चारों मुड़ा वोकर आँखी ह मोंगरा ल खोजत हे; मने मन गुनत हे, हिरदे ह रोवत हे। मोंगरा ह आज काबर नइ दिखत हे भगवान? कहाँ गे होही? घर भर म मुर्दानी काबर छाय हे? कतको सवाल वोकर मन म, हिरदे म घुमरत हें । काकर ले पूछय? कोन वोला बताय। मोंगरा ल कहाँ खोजे, कहाँ पाय? अब काकर संग गोठियाय, काकर संग बतियाय? वोकर संग अब कइसे भेंटाय?
बाम्हन चिरई के छाती ह लोहार के धुंकनी कस धक-धक, धक-धक धड़कत हे। आँखी मन ह बोटबिट ले हो गे हे। पाँखी मन टूटे-परे कस अल्लर पर गे हे।
सोंचत-सोंचत पीछू छै महिना के सब्बो बात वोकर आँखी-आँखी म सनीमा कस झूले लग गे।
वो दिन ये घर म खूब उछाह-मंगल होय रिहिस। तीन-चार दिन ले दमउ-दफड़ा अउ बेन्जो-मोहरी के मारे कान भर गे रिहिस। छानी-परवा अउ गली-खोर, चारों खूँट, बड़े-बड़े पोंगा अउ डग्गा रात-दिन भाँय-भाँय अलग बजत रहंय। बिजली के लट्टू अउ झालर मन के मारे घर ह जगमग-जगमग जगमगावत रहय। सगा-सोदर के मारे महल जइसे घर ह सइमो-सइमो करत रहय, गोड़ मड़ाय बर घला तिल-भर जघा नइ रहय।
बाम्हन चिरई ह अपन खोन्धरा ले मुड़ी निकाल के देखिस, मोटियारी मन के झत्था अलग अउ डोकरी-सियान मन के झत्था अलग। सब अपन-अपन झत्था म गाय-नाचे म मगन हें। डोकरी मन के झत्था म वो डोकरी दाई ह घला बिधुन हो के गावत रहय; जेकर किरपा ले दू दिन पहिली वोकर खोन्धरा अउ वोकर अधसिगे पिला मन के बिंदरी बिनास ह होवत-होवत रहि गे रिहिस।
बात अइसन ए। मड़वा छवइया अउ चंदेवा लगइया मन अपन-अपन काम म लगे रहंय। बड़े मालिक ह कमइया मन ल घूम-घूम के तियारत रहय। तभे झरोखा डहर वोकर आँखी ह गड़ गे। एड़ी के रिस तरुवा म चढ़ गे। लिपइया-पोतइया मन के तीन पुरखा मन ऊपर पानी रूकोइस, कि – ‘‘कते साले अँधरा-अँधरी मन लीपिन-पोतिन होही रे, उँखर आँखी म चिरई के अतेक बड़ खोन्धरा ह नइ दिखिस होही; येला सोभा दिही कहिके बचाय होहीं।’’
विही करा वोकर बड़े चरवाहा मुरहा राम ह थुन्ही गड़ाय बर गड्ढा कोड़त रहय, गाज वोकरे ऊपर गिरे लगिस, ‘‘कस बे मरहा साले, सबके आँखी फुटे हे ते फुटे हे, तोरो फुट गे हे रे; चिरई के अतका जबर खोन्धरा ह तहुँ ल नइ दिखिस होही। लान बे निसैनी, येला निकाल अउ घुरूवा म ठंडा करके आ।’’
काँटो तो खून नहीं। बड़े मालिक संग मुँह लड़ाय के, कि वोकर हुकुम उदेली करे के काकर हिम्मत हे भला; घर-परिवार म कहस कि गाँव अतराब म?
मरहा राम ह तुरते साबर ल आँट म ओधाइस अउ मुड़ी ल गड़ाय-गड़ाय सुटुर-पुटुर निसेनी लाने बर चल दिस।
तभे ये डोकरी दाई ह बड़े मालिक के आगू म आ के ठाड़ हो गे। किहिस – ‘‘कखरो आँखी नइ फूटय बचनू , मोरे से गलती हो गे बाबू। फेंकत रिहिन हें, मिही ह छेंक देंव। नान-नान पिला हें बेटा वोमा, अभी ऊँखर आँखी नइ उघरे हे। फेंकवा देबे त का वोमन बांचहीं? चिरई चिरगुन के घर उजारे म पाप लगथे रे, सियान मन कथे। अपन बेटा के घर बसाय बर जावत हस, अइसन उछाह-मंगल के बेरा म तंय चिरई-चिरगुन के घर उजारे के पाप के भागी झन बन, रहन दे।’’
बड़े मालिक ह चुरमुरा के रहि गे। किहिस – ‘‘ये बुआ के मारे ककरो नइ चलय।’’ अउ डाढ़ी खजवात दूसर कोती रेंग दिस।
अइसन तरह ले बाम्हन चिरई के घर अउ वोकर पिला-पादुर मन के रक्षा होए रिहिस। बड़े मालिक के भड़कइ ल देख के वोकरो लहू सुखा गे रिहिस, फेर ये डोकरी दाई ह वोकर बनउती ल बना दिस। झाला ले उतर के वो ह डोकरी दाई के तीर म आइस। खड़े रहय तेकर चारों मुड़ा फुदुक-फुदुक फुदके लागिस – चीं..चीं…चीं… । ‘तोर जय हो माता, मोर घर-दुवार, मोर पील-पांदुर के तंय आज रक्षा करेस।’
डोकरी दाई ह का समझे चिरई चिरगुन के भाषा ल; कथे – ‘‘भाग रे छिनार, इतरा झन, चीं-चीं करत हस। तोर किता बिचारा नौकर-चाकर मन के बुता बन गे।’’
डोकरी दाई ह का जाने, बाम्हन चिरई ह इतरावत नइ रिहिस, वो ह तो वोकर गुन-गान करत रिहिस। डोकरी दाई के दुत्कार म घला बड़ मया रिहिस। चीं-चीं करत बाम्हन चिरई ह फुर्र ले उड़ गे।
वोती पिला मन खोन्धरा म चूं-चूं नरियावत, मुँहू फार-फार के देखत रहंय कि दाई ह कब आही, कब चोंच म चारा डारही।
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बचनू ! बच्चन सिंह गँउटिया ल डोकरी दाई ह इही नाव ले बलाथे। परिवार म कि गाँव म अउ ककरो हिम्मत नइ हे कि गँउटिया ल बचनू या कि बच्चन सिंह कहि के बलाय। बच्चन सिंह गँउटिया के ददा-कका मन सब भगवान घर रेंग दे हें। डोकरी दाई ह गँउटिया के फुफु ए। भाई-बहिनी मन म सबले बडे। छोटे मन सब रेंग दिन, डोकरी दाई ह आज ले जीयत हे। भोलापुर गाँव म वोकरो, बर के रुख सरीख बड़े जन परिवार हे। ससुरार अउ मइके, दुनों जगा डोकरी दाई के गजब मान-सनमान हे। बड़ सरधा ले जम्मों झन वोकर पाँव छूथें।
डोंकरी दाई के हिरदे म घला अतेक मया-दुलार हे कि सब ल बाँटत फिरथे। कतको बाँटथे तभो ले वोतका के वोतका। मया-दुलार ह बाँटे म कभू सिराथे?
बच्चन सिंह गँउटिया ह कोनों ल नइ घेपे, डोकरी दाई ल छोड़ के। सब बर डोकरी दाई ए, फेर बच्चन सिंह गँउटिया के सग फूफू ए; महतारी ए।
गँउटिया-गँउटनिन के नानुक परिवार; एक झन बेटा भर तो हे। बेटा के नाव हे विष्वनाथ, बोलइ-बोलइ म बिसनाथ हो गे अउ बिसनाथ ह हो गे बिसु; पढ़-लिख के सरकारी अफसर हो गे हे। बोलत-बोलत म एसो लटपट राजी होइस हे, बिहाव बर।
घर म अतेक बड़ जग रचाय हे। कोन ह देख-रेख करे। गँउटिया ह महिना दिन पहिलिच् मान मनौव्वल करके फूफू ल लेवा के ले आय हे।
आज बिसु के तेल चघत हे।
डोकरी दाई ह गजब खुस हे। बिसु ह वोकर सबले जादा मयारूक बेटा आय। होवइया बहु के पढ़ाई-लिखाई, रूप-गुन अउ सुंदरता के बखान पहिलिच् सुन डरे हे। अब तो वोला देखे भर के साध बाँचे हे।
बेटा के तेल चघत हे। गँउटनिन ह अँचरा देय हे। बहिनी, दीदी, भउजी मन तेल चघावत हें। बाजा-मोहरी वाला मन बाजा घटकावत हें। डोकरी दाई ह बड़ सुघ्धर अकन तेलचग्घी गीत गावत हे –
घर ले वो निकले,
घर ले वो निकले, दाई हरियर-हरियर
दाई हरियर-हरियर
मड़वा म दुलरू तोर बदन कुम्हलाय।
दाई के अँचरा,
दाई के अँचरा हो अगिन बरत हे,
दाई अगिन बरत हे,
फूफू के अ्रँचरा मोर देवाथे अशीष।
एक तेल चढ़ गे,….
एक तेल चढ़गे, दाई हरियर-हरियर
दाई हरियर-हरियर
मड़वा म दुलरू तोर बदन कुम्हलाय।
कहँवा रे हरदी…
कहँवा रे हरदी, भये तोरे वो जनामन
भये तोरे वो जनामन
कहँवा रे हरदी तँय लिये अवतार।
मरार बारी
मरार बारी, भये तोरे हो जनामन
भये तोरे हो जनामन,
बनिया दुकाने तँय लिये अवतार।
कहँवा रे करसा …….
बाम्हन चिरइ ह झरोखा के अपन खोन्धरा ले मुड़ी मटका-मटका के सबो नेग-जोग ल देखत, अचरज म बूड़े रहय। पिला मन के आँखी उघर गे रहंय, दाई ल सोंच म पड़े जान के पूछथें – ‘‘अब्बड़ बेर होगे, तँय काला सोंचथस दाई?’’
‘‘सोंचंव नहीं बाबू हो, सुरता करथ्ंाव। मंय तुंहर सरीख रेहेंव, त मोर दाई ह बताय कि मनखे जात म बिहाव होथे, बहु लानथें, उछाह मंगल होथे, त ये घर म वइसने कुछूु होवत होही का कहिके। दू दिन होगे, घर ह सइमों-सइमों करत हे। बाजा-बजनिया मन के लेखा नइ हे, कोल्लर-कोल्लर जेवन चुरत हे, नाना परकार के कलेवा बनत हे, घर ह महर-महर करत हे, एके मांदी बइठत हे, एके उठत हे।’’
‘‘ओहो! सिरतोने कहिथस दाई, महमहई अतका उड़त हे, त सवाद ह कोन जाने कतका होही?’’ पिला मन कहिथें।
बाम्हन चिरई के धला मुँह ह पनछियाय रहय, पिला मन के गोठ ल सुन के वोकर तिस्ना ह अउ बढ़़ गे। फुर्र ले उड़ के चूल कोती चल दिस। बड़े-बड़े परात मन म रंग-रंग के पकवान माड़े रहय। सब ढंकाय रहंय। सोंहारी के परात ह थोकुन उघरा रहय, विही डहन उड़िस।
को जानी कते करा ले बड़े मालिक ह देखत रहय, जोर से चिल्ला के कहिथे – ‘‘अबे मुरहा, वो चिरई ल धर के मुसेट तो रे। खाय-पिये के जिनिस मन ल बने तोप ढांक के रखो। ……… एकरे सेती येला बरोय बर केहे रेहेंव फेर मोर काबर चलही?’’ फुफू ह विही करा मंड़वा म नेंग-जोग म भुलाय रहय, विही डहर निसा ना जोखिस बड़े मालिक ह।
फुफू के रग म तो घला इही खानदान के लहू बोहावत हे, सुन के कहूँ चुप रहितिस; रोसिया के किहिस – ‘‘अई, एक ठन सोंहारी ल जुठार देही त गरीब नइ हो जास रे बाबू , तेकर बर मार पच्चर मारत हस।’’
फुफू ल रोसियावत देख के बड़े मालिक ह ठठा के हाँस दिस अउ हाँसत-हाँसत खोर डहर निकल गे।
जुग हो गे रिहिस हे, फुफू ह बचनू ल अइसन हाँसत नइ देखे रिहिस हे, देख के गदगद हो गे। गोद म खेलावल लइका, अब भले बड़े मालिक बन के बइठे हे, दुनिया बर होही। वोकर बर तो बचनू ए, जेकर नेरवा कांटे हे, पेट सेंके हे, गोदी म खेलाय हे। वोकर बेटा मन ले घला छोटे आय, वोकर बर तो बेटच बरोबर आय,
मालिक ल खुस देख के चरवाहा मन के घला मन खुस हो गें।
बाम्हन चिरई ह डर के मारे खोन्धरा म जा के खुसर गे रहय। बड़े मालिक ल खुस होवत देख के वोकरो हिम्मत बाढ़ गे। मांदी होय रहय ते ठउर ह बहराय नइ रहय, जूठा-काठा बगरे रहय, आइस अउ चोंच म भर-भर के डोहारे लगिस।
खावत-खावत चिरई के पिला मन कहिथें – ‘‘ओहो, गज्जब मिठाय हे दाई। हमरो मन के बिहाव करबे त अइसनेच मिठाई अउ बरा-सोंहारी बनवाबे।’’
पिला मन के बात सुन के बाम्हन चिरई ह मुसका दिस – ‘चीं, चीं, चीं, चीं।’
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बिहान दिन बिहने जुवार के बात आय। अँगना म घर-परिवार अउ आरा-पारा के जम्मों दाई-माई, टुरी-टानकी मन जुरियाय रहंय। बीच म एक झन नवा सगा ह डर्राय सरीख, लजाय सरीख, सुटपुटाय सरीख बइठे रहय। उज्जर-उज्जर दुनों हाथ म चरचर ले मेंहदी लगे हे, गोर-गोर मरवा मन ह हरियर-हरियर चूरी म ठस-ठस ले भराय हे अउ फूल सरीख नाजुक-नाजुक पाँव मन म रिगबिग ले माहुर ह अघात सुंदर दिखत हे। मुंहू ह घूँघट म ढँकाय रहय, कहाँ दिखतिस भला बाम्हन चिरई ल। फेर जान डरिस वोहा, जा… इही ह नवा बहू होही। अहा हा….. हाथ-गोड़ के सुंदरता के का पूछना हे, को जनी मुँहू ह कतेक सुंदर होही ते? चिटिकन मुँहू ल तो घला देख लेतेंव।
अब्बड़ बेर हो गे हे वोला कोशिश करत, मुँड़ी ल कभू डेरी बाजू त कभू जेवनी बाजू मटका-मटका के, पुछी ल पुचुक-पुचुक नचा-नचा के। चीं,चीं, चीं ……। चिचोरी करिस, ‘गोई! देखइया मन ल जादा झन तरसा, चिटको तो घूंघट ल सरका, देख लेतेंव तोर मुँहु ल।’
तभे डोकरी दाई ह घर मालकिन संग आइस। दाई-माई मन के जम्मो कलर-बिलिर ह माड़ गे। डोकरी दाई ह पहिली तो दुल्हिन के बलाई लिस फेर वोकर घूँघट ल हलु-हलु माथा म सरका दिस। पुन्नी के चंदा ह बादर ले निकल गे; धरती-अगास, चारों खूँट म बगबग ले अँजोर बगर गे।
छिन भर तो डोकरी दाई के बुध हरा गे; देखिस ते देखते रहि गिस। लक्ष्मी ह साक्षात बहू बन के आय हे। अहा..हा… भगवान ह का रूप गढ़े हे; एकेक अँग ल कूंद-कूंद के, नाप-जोख कर-कर के बनाय हे, कोन्हों ह न रत्तीह भर कम हे, न रत्ती भर जादा हे। चंदा ह देख पाही ते वहू ह लजा जाही। डोकरी दाई ल होश आइस; तिसरइया अँगठी म अपन आँखी के काजर ल निकाल के वोकर गाल म टीक दिस, ‘काकरो नजर मत लगे।’ सुंदर गोल-गोल, लाल-लाल गाल ल चूमिस अउ अपन अँचरा के गांठ ल छोरिस। लकलक-लकलक करत सोन के हार बंधाय रहय। बहु के गर म बांध दिस। मांग कोती नजर चल दिस, दीवाली तिहार के दिया मन सरीख सिंदूर ह रिगबिग-रिगबिग करत रहय।
संग म बइठे सियान मन दुल्हिन ल कहिथें – ‘‘बने चीन्ह ले रहा बेटी, इही ह तुँहर परिवार के माई मुड़ी आय। तोर ससुर के फूफू ए, भोलापुर के गँउटनिन। अउ येदे ह इहाँ के गँउटनिन आय, तोर सास।’’
दुल्हिन ह टुप-टुप दुनों सियान मन के पाँव परिस।
डोकरी दाई ह मन भर आसीस दिस- ‘‘जुग-जुग जी बेटी, तोर चूरी सदा अम्मर रहे।’’
फेर तो सकलाय रहंय तउन जम्मों झन मन दुल्हिन के मुँहू देखे के अउ शक्ति भर-भर के चिनहा देय के सुरू कर दिन।
विही करा मड़वा के बांस म आमा डारा के पŸाा के आड़ म लुका के बाम्हन चिरई ह घलो गोई के मुँहरन ल देखत रहय; देख-देख के मोहाय कस चुपचाप बइठे रहय। सोंचत रहय; मंय अभागिन, पखेरू के जात, तोला का देवंव गोई, आसीस के सिवा। मुँह ले निकल गे – चीं, चीं, चीं …. ‘तोर सुहाग सदा अमर रहय।’
डोकरी दाई के नजर पड़ गे बाम्हन चिरई ऊपर, कहिथे – ‘‘अई! भाग रे छिनार फेर आ गेस; टुकुर टुकुर देखत हस। नजर लगाय बर बइठे हस का?’’
सुन के जम्मों दाई-माई मन खिलखिला के हाँस दिन।
बाम्हन चिरई ह फुर्र ले उड़ गे। उड़त-उड़त कहिथे – चीं,चीं,चीं…… ‘ये सब काम ल तुहींच मन करव डोकरी दाई, मनखे मन। हम पखेरू के जात, अइसन काम ल नइ करन।’
खुशी के मारे हवा म उलांडबाटी खावत, नाचत-कूदत बाम्हन चिरई ह अपन खोंधरा कोती चल दिस।
पिला मन माई ल कुलकत देखिन, रहि नइ गिस, पूछथें , चूं, चूं ,चूं …… ‘का मिल गे दाई, अतेक खुस काबर हस तंय?’
येती भीतर कोती जावत-जावत डोकरी दाई ह घर मालकिन ल कहत हे – ‘‘छातछात लक्ष्मी कस बहू पाय हस बहू ,भागमानी मन ल अइसन बहू मिलथे।’’
घर मालकिन के ध्यान ह अँगना के दूसर कोती बड़े-बड़े बाजवट मन म सजा के रखे दाहिज के समान मन कोती रहय। पलंग, गद्दा, सुपेती, सोफा, आलमारी, टी. व्ही, कूलर, फ्रिज, फटफटी, बरतन-भांड़ा, घर-गिरस्ती के समान, ठसाठस सब जिनिस तो रहय।
घर मालकिन ह मुँहू ल बिचका के कहिथे – ‘‘हूँ! चाँटबोन मुँहू ल छुछवाही के।’’
डोकरी दाई ह येखर सुभाव ल सबर दिन के जानत हे। जान गे, ललचहिन के मन ह दाहिज म नइ भरे हे। मने मन भगवान से बिनती करिस – ‘हे भगवान, तंय तो दयालु हस, रक्षा करबे।’
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दूसर-तिसर दिन के बात होही, बिहने ले, बेर उवे के पहिलिच् बाम्हन चिरई ह तुलसी चाँवरा तीर के रिगबिग ले लाल-लाल फूले दसमत फूल के पेड़ के डारा म बइठ के गोई के अगोरा करत हे। कतिक बेर दरसन दिही?
सब सगा-सोदर मन झर गे हें। डोकरी दाई घला चल दे हे। आज तो वो ह गोई ल जी भर के देखही; मन भर के बतियाही, हे कोई आज रोक-टोक करने वाला?
अँगना म चकचक ले उजास बगर गे। बाम्हन चिरई ह घूम के उŸाी डहर देखथे, अइ! अभी तो बेर नइ उवे हे, का के अंजोर बगरत हे? झटकुन घूम के दुवारी कोती देखथे, गँउटिया घर के सुरूज ह घर ले निकलत रहय। बाम्हन चिरई ह सोंचथे, वाह! इही पाय के बगरत अंजोर ह अतका मुलायम, अतका नरम, अतका सीतल हे, आँच के नाम नइ हे। अगास के सुरूज ह तो गरम-गरम रहिथे।
एक हाथ म आरती हे, दूसर हाथ म फूलकास के लोटा हे। बाम्हन चिरई ह मोहाय बरोबर टकटकी लगाय देखत हे। अ हा..हा.का रूप हे गोई के, अभी-अभी फूले दसमत के लाल-लाल फूल कस बदन हे, जउन ल न तो अभी हवा के परस लगे हे, न तो कोई तितली ह जुठारे हे; बदन ले मोंगरा-चमेली के महर-महर महमहई ह उड़-उड़ के चारों कोती बगरत हे।
न हाथ के मेंहदी के रंग छूटे हे, न पाँव के माहुर फीका होय हे; सब जस के तस हे। धीरे-धीरे रेंगत, तुलसी चाँवरा कोती आवत हे; न आरती के दिया बुझे, न लोटा के पानी छलके अउ न मुड़ी के अँचरा सरके, सबके मान रखना हे।
पानी के लोटा ल तुलसी चाँवरा म मढ़ा दिस, दसमत पेड़ कोती मुँहू कर दिस, दसमत के फूल टोरे लगिस। एक ठन टोरिस अउ बड़ जतन-जोगासन से वोला थारी म मड़ाइस। दूसर फूल बर हाथ बढ़ाइस, बाम्हन चिरई ह विही करा लुकाय बइठे रहय। मुड़ी ल डेरी-जेवनी नचा-नचा के गोई के मुँहू-मुँहू ल देखे म बिधुन रहय। गोई ह दसमत फूल टोरत हे, एकरो वोला कोई गम नइ रहय।
गोई ल अतका नजीक ले पहिली कभू अउ देखे रिहिस हे क?
बाम्हन चिरई के मुड़ी मटकई ल देख के गोई ल हाँसी आ गे, हाँसत-हाँसत हाथ उचा के मारे के नकल करिस।
जानो-मानो कब के जान-पहिचान वाले कस, बाम्हन चिरई ल घला इतरई आ गे; मुड़ी ल अउ मटका दिस, पुछी ल घला टेटका दिस। चीं, चीं,.., जिबरा दिस गोई ल। ‘गजब मार ते! मार के तो बता।’
गोई ह वोला पकड़े बर आस्ते ले हाथ लमाइस। चिरई फुर्र,; चीं, चीं, चीं …..। ‘जरा दम धर न गोई, अतका का जल्दी हे? तंय ह मोला का नइ तरसाय हस?’
बड़ सरधा ले तुलसी माता के पूजा करत हे गोई ह; जानो-मानो संउहत आगू म खड़े हाबे तुलसी माता ह। लोटा के गंगा-जल ल रूकोइस, दिया जलाइस, आरती घुमाइस, जलत उदबत्ती. ल खोंचिस, तुलसी दल टोर के वोला दू बीजा चाँउर अउ गंगा जल संग गटकिस फेर मुड़ी नवा के पाँव परिस।
वोती बाम्हन चिरई ह घला मने मन तुलसी माता के दसो अँगरी के बिनती करत हे – ‘हे, तुलसी माता! दुनिया भर के दुख तकलीफ तंय मोला दे देबे फेर मोर गोई के गोड़ म एक ठन कांटा झन गड़न देबे।’
जेती-जेती गोई ह जावत हे, बाम्हन चिरई ह धला वोकर पीछू-पीछू जावत हे।
अंगनच् म एक कोन्टा म कुआँ हाबे। तीर म बड़े जबर टंकी हे। टंकी म लिबलिब ले पानी भरे हे। छोटकुन बाल्टी ल धर के गोई ह गमला म लगे फूल-पौधा मन म पानी रुकोवत हे। किसम-किसम के पौधा लगे हे गमला मन म। रंग-रंग के गुलाब हे, मोंगरा हे, सेवंती हे, केवरा हे, सदासोहागी हे, सब म पानी पलोवत हे गोई ह।
मोंगरा के काली साँझ कुन के डोंहराय जम्मों डोंहरू मन ह चरचर ले छितर गे रहय। खुस बू के मारे चारों खूंट ह महरे महर करत रहय।
गोई ह बाल्टी ल भिंया म मड़ा दिस। निंहर के बड़ सुंदर अकन मोंगरा के फूल मन म दुनों हाथ ल फेरे लगिस।
बाम्हन चिरई के हिरदे ह सिहर गे, कांटा गड़े कस पीरा होइस। उई माँ, मोर गोई के नाजुक-नाजुक हथेली मन खुरचाय मत।
गोई के मन घला मोंगरा के फूलेच् मन सरिख फूले रहय, महमहात रहय। एक ठन फूल ल टोर के अपन बेनी म खोंच लिस। बाम्हन चिरई ल अचरज हो गे, कते ह मोंगरा के फूल ए अउ कते ह गोई के मुँहू ए; कोई बता सकथे? मुँह ले हुरहा निकल गे, चीं, चीं, चीं, – ‘मोंगरा’।
‘मोंगरा’, बाम्हन चिरई ह फेर कहिथे। हाव, आज ले हमर गोई ह अब हमर मोंगरा हो गे, जनम भर के मितानिन। चीं, चीं, चीं, ‘सीता-राम मोंगरा’।
आज ले गोई ह बाम्हन चिरई के मोंगरा हो गे।
गोई ह मुड़ी उचा के बाम्हन चिरई कोती देखिस। मुस ले हाँस दिस। जेवनी हाथ ल उचा के मारे के फेर नकल करिस। खोची भर अनाज के दाना ल तुलसी चाँवरा तीर बगरा दिस। बाम्हन चिरई ह देखिस, कतेक मया दुलार भरे हे गोई के नान्हें-नान्हें आँखीं मन म? अपन सगा-परिवार मन ल नेवता दिस बाम्हन चिरई ह, चीं, चीं, चीं, … ‘आओ रे पील-पांदुर हो, मोर मोंगरा गोई ह आज हमर मन के पंगत करत हे।’
मोंगरा के फुलवारी म अब तो दिनों दिन चिरई-चिरगुन के चिंव-चाँव ह बाढ़त जावत हे; का तोता, का मैना, कोयली, रम्हली अउ कोन जाने का का? कंउवा घला कहाँ पिछवाने वाला रिहिस हे।
गँउटिया-गँउटनिन अचरज म पड़े हे- ‘‘पहिली तो अतेक चिरई-चिरगुन नइ आवंय; अब कहाँ ले सकला गें?’
इही किसम ले दू-चार दिन बीत गे।
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बाम्हन चिरई ह दसमत पेड़ ले देखत हे, मोंगरा के चेहरा ह आज कुम्हलाय सरीख, मुरझाय सरीख दिखत हे। वोकर हिरदे ह धक ले हो गे, ‘हे तुलसी माता! मोर मोंगरा ल आज कोन ह का कहि दिस? का दुख हमा गे हे वोकर हिरदे म?’
आज एको चिरई मन मोंगरा के देवल दाना ल मुँह नइ लगाइन।
अँगना म बिसु बाबू के मोटर-कार खड़े हे। डरावर ह पोंछ-पोंछ के चमकावत हे, हवा-तेल-पानी के जाँच करत हे। सब ठीक-ठाक हे। बैग-अटैची सब जोरा गे हे। चाबी अंइठना हे, अउ फुर्र। बस बिसु बाबू के अगोरा हे।
बिसु बाबू ह नास्ता कर के हाथ पोंछत सुरुकुरु कार कोती आवत हे। अपन खोली के दरवाजा म परदा के आड़ ले के मोंगरा ह खड़े हे, जोड़ी ल जावत देखत हे। मन ह कहत हे, जोड़ी ह एक नजर तो लहुट के देख लेतिस।
परछी ले गँउटनिन ह मोंगरा कोती अँगठी नचा के झिंगुर चिचियाय कस बोलिस – ‘‘अरे बाबू , तंय जावत हस ते जा, फेर अपन ये बोझा ल घला ले के जा। हमर छाती म दार दरे बर ये छुछुवाही ल इहाँ छोड़ के झन जा।’’
हे भगवान ये ह बोली बोलत हे कि आरी चलावत हे? बाम्हन चिरई के जी कलप गे। बेंदरी मुँहरन के तो खुद हे, छुछुवाही तो खुद हे, कोन होथे ये ह मोर परी कस सुंदर मोगरा ल छुछुवाही कहवइया? बाम्हन चिरई के मन करिस, उड़ के जाय अउ ये बेंदरी मुँहू के मुँहू ल चोंचन-चोंचन के, ठोनक-ठोनक के लहू-लहू कर दे।
जोड़ी ह एक घाँव तको मोंगरा डहर लहुट के नइ देखिस। वाह रे निर्दयी। मोंगरा ह परदा के आड़ ले जोड़ी ल जावत देखत हे। सास के बोली ह वोकर हिरदे म जा-जा के गड़त जात हे। दुनों आँखी ले तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे, मनुहार करत हे ‘हे जोड़ी पल भर तो लहुट के देख ले। तंय नइ रहिबे, वोकरे सुरता कर-कर के मंय दिन ल पहा लेतेंव। काकर अधार म तंय मोला इहाँ छोड़ के जावत हस?’
जोंड़ी तो निठुर हे; काबर देखे लहुट के? गाड़ी तो धुर्रा उडा़त फुर्र हो गे। मोंगरा ह जोड़ी के मोटर ल जावत देखत हे। न जोड़ी के दरसन होवत हे न वोकर गाड़ी के। इहाँ ले ऊहाँ तक केवल धुर्रच् धुर्रा दिखत हे, धुर्रच् धुर्रा दिखत हे।
मोंगरा ह पथरा कस मुरती जिहाँ के तिहाँ ठाढ़े हे, हालत हे न डोलत हे, तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे।
सास ह फेर आरी चलाइस -’’अरे ए छुछुवाही, रोना हे, मरना हे सरना हे त भीतर म जा के मर-खप, डेरौठी म खड़े हो के दुनिया ल तमाशा मत देखा। ………. हे भगवान, कोन जनम म पाप करे रेहेंव कि ये कुलक्छनी के संगत म पड़ गेंव?’’
मोंगरा ह तुरते भितरा गे।
सास गँउटनिन के जहर कस बोली ल चरवाहा-चरवाहिन मन सुनिन, राउत-रउताइन मन सुनिन, पवनी-पसेरी वाले मन सुनिन, आरा-पारा वाले मन सुनिन, अटइत-बंटइत अउ जात-गोतियार मन सुनिन, बचनू गँउटिया ह घला सुनिस; ककरो हिम्मत नइ होइस कि गँउटनिन ल पूछय कि का गलती कर परिस हे बहू ह तेकर खातिर वोला अतका बेकलम-बेकलम गारी देवत हस? कोनों चींव नइ करिन।
अनीति-अन्याय के बात होवत हे, विरोध करइया कोनों नइ हे।
बाम्हन चिरई ह मने मन सोंचत हे, ‘मनखे जात का अतका डरपोक होथें? कि ऊँखर आँखी के पानी ह उतर गे हे? कि ऊँखर छाती म हिरदे नइ होवय? कि ऊँखर नीर-क्षीर विवेक ह सिरा गे हे? कि ऊँखर आँखी मन म सुवारथ के पट्टी बंधा गे हे?’
बाम्हन चिरई ह मनखे नो हे। वोकर तन-बदन म आगी लगे हे। उड़ के परछी म चल दिस जउन तीर खड़े हो के सास ह आरी चलावत रहय, मन भर के बखानिस, चीं, चीं, चीं ………. ‘हत् रे बेंदरी-मुँहू , बिलई, भंइसी मोर मोंगरा गोई ल गारी-बखाना करने वाली तंय होथस कोन? तंय छुछुवाही, तंय कुलक्छनी। तोर मुँहू म कीरा पर जाय ते। मरे-खपे के बात करथस। तोर तो नारी जनम धरई ह घला बिरथा हे रे बिलई। नारी हो के नारी के दुख ल तंय नइ जान सकेस? नारी हो के नारी ल नइ समझ सकेस, नारी ल नइ समोस सकेस? बने जांच-परख के, चार समाज अउ देवता- धामी के गवाही म बिहा के लाय हस तब वो ह तोर घर म आय हे, कोनों बरपेली नइ आय हे। बेटा के पीछू म बेटी बरोबर हे। फेर तोर तो छाती म पथरा माड़े हे, हिरदे होतिस त न समझतेस?’
मोंगरा के फुलवारी ह आज सुन्ना परे हे। न मिट्ठू के मीठ बोली सुनावत हे, न कोयली के कुहुक सुनावत हे। न चिरई-चिरगुन के चींव-चाँव सुनावत हे न, कंउवा के काँव-काँव सुनावत हे। सुनावत हे ते खाली मोंगरा के करलइ अकन रोवइ-सिसकइ ह।
बाम्हन चिरई के मन ह कलप गे। कते खोली म होही मोंगरा ह?
आखिर बाम्हन चिरई ह खोजिच डरिस। मोंगरा ह अपन पलंग म मुँह ढांप के ढलगे हे, रोवत हे, कल्पत हे। आस बंधइया, ढाढस देवइया कोनों नइ हे।
बाम्हन चिरई ह झरोखा म बइठे हे। वोकरो मन ह रोवत हे। सोंचत हे, भगवान ह सुख अउ दुख, प्रेम अउ घृणा, ये सब ल मनुसेच मन बर बनाय हे। कतेक सुंदर अउ कतेक अजीब चीज होथें ये मनखे मन?
कहिथें, सुख ह बाँटे म बढ़थे अउ दुख ह बाँटे म घटथे। बाम्हन चिरई ह सोंचत हे; मोंगरा के दुख ल मंय कइसे कर के बाँटंव? चीं…….. ; नइ सुनिस मोंगरा ह। फेर आसते से किहिस चीं ……….. ।
मोंगरा ह सुन डरिस बाम्हन चिरई के बोली ल, आँसू मन ल अँचरा म पोंछिस, मुड़ी उठा के वोकर कोती देखिस।
हे भगवान! हे तुलसी माई! देख तो दाई, रोवई के मारे मोंगरा के आँखी मन ह कतका ललिया गे हे। बाम्हन चिरई के करेजा ह मुँह म आ गे। फेर कहिथे चीं….. ‘झन रो गोई, झन रो! नारी जनम धरे हस, नारी ह तो धरती समान होथे। पृथ्वी माता ह सबके झेल ल सहिथे, सबके गलती ल सहिथे, सबला छिमा कर देथे। नारी मन तो अइसन दुख ल सतजुग ले सहत आवत हें। सतजुग म शकुन्तला बहिनी ह सहिस, त्रेता म उरमिला माई ह अउ द्वापर म राधा ह सहिस। कलजुग म तोर सही दुखियारी के अब का गिनती बतावंव। दुख कतरो बड़ होवय, कटथे जरूर। घुरुवा के घला दिन ह बहुरथे बहिनी, चुप हो जा।’
गली कोती कोन जाने कते माई ह सुघ्घर अकन सुवा गीत गावत रहय –
तरि नारि नहना मोर,
तरि नारि नहना रे सुवना,
के तिरिया जनम झन देय
ना रे सुवना,
कि तिरिया जनम झन देय।
मोंगरा ह कलेचुप उठिस अउ हाथ-मुँह घोय बर नहानी कोती चल दिस।
अब तो रोज अइसनेच् होय लगिस।
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तीन महीना हो गे।
बाम्हन चिरइ ह नित आठों पहर टकटकी लगाय सड़क कोती निहारत रहिथे; कोनों मोटर नहकथे, कोनों फटफटी नंहकथे, झकनका के देखथे, कहूं बिसु बाबू आवत होही।
बीसू बाबू के दरसन नइ हे।
मोंगरा गोई के हालत ल का बताँव, फूल सही काया ह सूख के काँटा हो गे हे। जीव ह को जनी कते करा लुकाय होही?
मोंगरा गोई ल न घर ले बाहिर निकले के इजाजत हे, न गोड़ म माहुर-आलता लगाय के। न हाथ म मेंहदी लगाय के, न चुंदी म तेल लगाय के। रसोई म जाना तो सक्त मना हे।
गोई ह दाना-दाना बर तरसत हे, तेल-फूल बर तरसत हे, चेंदरी-चेंदरी बर तरसत हे।
बाम्हन चिरई ह सोंचत हे – गोई! पखेरू होतेस, एक-एक दाना ला के तोर चोंच म डारतेन, तोर पेट भर जातिस; कइसे देखंव तोर करलई ल। तोर सुध लेवइया ये दुनिया म का कोनों नइ हें?
वोती सास भंइसी के का पूछना हे। दिन म दसों बेर आनी-बानी के खावत हे, चुंदी म नाना परकार के तेल लगावत हे, किसम-किसम के पाटी पारत हे; झलमला बने हे, झम ले एती आवत हे, झम ले वोती जावत हे। ओखी लगा-लगा के दिन म दसों घांव गोई ल बखानत हे।
बाम्हन चिरई के तन-बदन म आगी लगे हे, हत् रे चंडालिन! तोला दीन-दुनिया के कोनों डर नइ हे, ते नइ हे, भगवान ल तो थोकुन डर। गोई के का गलती हे? दहेज म कार नइ लाइस? सोना-चाँदी कम परगे? तब का रंग-रूप, गुन-व्यवहार, पढ़ाई-लिखाई के कोनों मोल नइ हे? कार अउ सोना-चाँदी ह इंकरो ले बढ़ के हो गे हे? तोरो बेटी रहितिस तब जानतेस तंय बेटी के मया ह का होथे, बेटी के मोल का होथे।
भगवान तो पथरा के बने हे; न कुछ देखे, न कुछ सुने अउ न कुछ बोले; आरा-पारा, जात गोतियार,, गाँव समाज वाले मन ल तो सब दिखत हे, सब सुनात हे; ये मन काबर कुछू नइ बोलंय? वाह रे आदमी के जात। आदमी जनम पाय हो फेर राक्षस ले गये-बीते हव।
एक दिन संझा बेरा बिसु बाबू के मोटर आ के झम ले अँगना म ठाढ़ हो गे। बाम्हन चिरई के मन हुलस गे। गोई के घला अइलाय बदन हरिया गे।
आज के रात गोई ह पिया संग सुख के नींद सुतही।
समाचार बात कहत बगर गे। मिट्ठू, मैना, कोयली, रम्हली, सब ल पता चल गे; आज गोई के पिया ह घर आय हे। बाम्हन चिरई के पिला मन कब के सज्ञान हो के अपन अलग-अलग खोन्धरा बना चुके हें; वहू मन खुस हें।
बाम्हन चिरई ह अब गोई के खोली के झरोखा म अपन बसेरा बना डरे हे। गोई ह बजरा दुख भोगत हे, अकेला कइसे छोड़ देय वोला?
कान ह गोई के गोठ सुने बर कब के तरसत हे, गोई के खिलखिलई सुने जुग हो गे हे, आज तो हाँसही जरूर। वोला चैन नइ आवत हे। कतका बेरा रात होही?
गोई ह जोड़ी ल गिलास म पानी ला के देवत हे। बिसु बाबू ह गोई ल गोड़ ले पाँव तक निहारत हे।
बाम्हन चिरई ह सोंचत हे, गोई के दसा देख के बिसु बाबू के आँखी ले आँसू निकल जाही; फेर बिसु बाबू के आँखी ल देख के, व्यवहार ल देख के वो ह ठाड़े-ठाड़ सुखागे। बिसु बाबू ह गोई ल धमका के पूछत हे – ‘‘माँ कहाँ हे?’’
का जवाब देतिस गोई ह?
बिसु बाबू ह माँ ल सोरियत वोकर खोली डहर झाँक के देखथे। अइसे दरी झाँकी-झलमला सही झम ले एती, झम ले वोती जावइया भंइसी ह अपन खोली म जा के मुँह फुलोय, धरना धरे बइठे हे।
बिसु बाबू के एड़ी के रिस तरवा म चढ़ गे। उनिस न पुनिस गोई के पीठ म धमाधम-धमाधम मुटका बरसाय लगिस। दहाड़ मार के गोई ह धरती म गिर गे। बिन पानी के मछरी कस तलफे लगिस। बिसू बाबू राक्षस बन गे हे; लात ह थिरावत नइ हे।
सास ह धरना धरे बइठे हे, मने-मन हाँसत अपन खोली म खुसरे हे।
बचनू गँउटिया के आय के अभी बेरा नइ होय हे।
आरा-पारा, जात-गोतियार मन अँधरा-भैरा बन गे हें।
गोई ह बेसुध धरती म परे हे। बाम्हन चिरई ह धारो-धार रोवत हे – ‘हे धरती माई! दसों अंगरी के बिनती हे, मोर गोई के रक्षा करबे। तोर सिवा वोकर इहाँ अउ कोन हें?’
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गोई ह जानथे कि बाम्हन चिरई ह जानथे; बजरा बरोबर रात ह कइसे पहाइस? रात भर गोई ह कलप-कलप के रोय हे। रात भर बिचारी बाम्हन चिरई ह बचनू गँउटिया के चिरोरी करे हे, हे मालिक! तंय तो गाँव भर के नियाव करथस; कुछू तो नियाय कर। परोसी मन घर, जात-गोतियार मन घर, पंच-सरपंच मन घर जा-जा के दसों अँगरी के बिनती करे हे, चलो ददा हो, चलो बबा हो, मोर गोई के रक्षा करव। एक घर के बेटी ह गाँव भर के बेटी होथे, एक घर के बहु ह गाँव भर के बहु होथे। आज मोर गोई ऊपर बीपत आय हे, भगवान झन करे, काली ककरो ऊपर आय। इही सुख-दुख खातिर तो आदमी ह आदमी संग बस्ती म बसथे?
वाह रे इन्सान हो, गोई के आँसू पोंछे बर एक झन तो आतिन। कोनों ल काबर दोश देना? जेकर अँगठी धर के, जेकर मुँहू देख के, जेकर भरोसा करके आय हे, विही ह सबले बडे बैरी बन गे हे तब।
बिहने हो गे हे। दुनिया म उजास बगर गे, गोई के अँगना म अँधियारा पसरे हे।
बाम्हन चिरई ह मने मन सोंचत हे, दिन के उजियार म कहूँ बिसु बाबू के मन के रात रूपी कालिमा ह मेटा गे होही। फेर वाह रे निष्ठुमर बिसु बाबू! तंय तो अब राक्षस ले घला बाहिर हो गेस।
पहिली गोई के बैग अउ सुटकेस ल धम्म ले अँगना म फेंकिस फेर गोई के छरियाय चुंदी ल धर के गोई ल घिरलात अँगना म निकालत हे। बेकलम-बेकलम गाली बकत हे। मुटका म मारत हे, लात म लतियावत हे।
गोई ह जोड़ी के गोड़ ल पोटार-पोटार के घार मार-मार के रोवत हे। सास के गोड़ म गिरत हे, सासो ह लतियावत हे, ससुर के गोड़ म गिरत हे, ससुरो ह लतियावत हे।
बाम्हन चिरई के आँखी ले गंगा-जमुना बोहावत हे। धरती माई ल गोहार पार-पार के बिनती करत हे, हे धरती माई! भगवान ह अइसन दुख तो सीता माई ल घला नइ देय हे। वोला तो तंय अपन गोद में समो लेय रेहेस, मोर गोई ल काबर नइ समोस? काबर तंय ह आज निठुर बन गे हस?
मुरहा राम अउ दूसर नौकर चरवाहा मन कोठा-परसार म मुँहू ल तोप-तोप के दंदर-दंदर के रोवत हें। अरोस-परोस के मन घला रोवत-रोवत अपन-अपन घर भीतर खुसरत हें।
तुलसी माता के पत्तार मन घला पिंवरा गे हे।
दसमत के डोंहरू मन छितरावत नइ हें।
पेंड़ मन के डारा-खांदी मन हाले-डोले बर भुला गे हें।
मिट्ठू ,मैना रम्हली, कोयली, कंउवा कोनों आज अपन ठीहा ले निकले नइ हें।
बिसु बाबू के आँखीं मन म षैतान समाय हे। अपन मोटर म बइठ के फरार हो गे।
बचनू गँउटिया के आँखी मन कांच के बने हे। कुछू दिखत नइ हे। कते डहर वहू रेंग दिस।
सास तो साक्षात डायन के अवतार ए। हाथ नचा-नचा के, मुँह मटका-मटका के अउ आँखी छटका-छटका के कहत हे – ‘‘अरे सती सावित्री, राम-राम के बेरा, अँगना म अब तमाशा मत दिखा। तोर समान ल धर अउ अपन बाप घर कोती रेंग, नइ ते ये दे अतका बड़ कुआँ हे, वो दे माटी तेल के डब्बा माड़े हे, वो दे डोरी माड़े हे, कइसनो कर के तो मर।’’
दुरिहा म रेडियों बाजत हे; गीत आवत हे –
तरि नारि नाना
मोर तरि हारि नाना न रे सुवा हो
कि तिरिया जनम झन देय।
तिरिया जनम मोर धरती बरोबर न रे सुवना
कि माड़े हाबे दुख के पहार
न रे सुवना
कि माड़े हाबे दुख के पहार
न रे सुवना
कि तिरिया जनम झन दे।
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का उपाय करे? बाम्हन चिरई ह दसमत के पेड़ म बइठे सोंचत हे। गोई के दुख ल कइसे हरे?
सतवंतिन के कहिनी सुरता आ गे। ननपन म दाई ह सुनाय; सुनात-सुनात वोकर दुनों आँखी ले तरतर-तरतर गंगा-जमुना के धार बोहाय लगे। लइका रहय तो का हो गे; सुनत-सुनत वहू ह रो डरे।
एक झन सतवंतिन रहय, बिलकुल मोंगरा गोई कस; सात झन भाई के एक झन दुलौरिन, सबले छोटे। भउजी मन के आँखी के पुतरी कस; बड़ मयारुक, बड़ सुकुमारी, फूल कस, परी कस। पराया धन बेटी, समात ले भाई-भउजी के कोरा म समाइस, खेलिस, दुनिया भर के मया-दुलार पाइस। बाबुल के कोरा म बेटी ह कब तक समाही? एक न एक दिन कोरा ह छोटे होइच् जाथे। भाई मन बड़ उछाह-मंगल से बहिनी के बिहाव कर दिन।
बड़ सुंदर दुल्हा रहय सतवंतिन के; गजब मया करे सतवंतिन ल। फेर जेठानी मन तो डायन रिहिन, देवर-देरानी के सुख ऊँखर आँखी म गड़े लगिस। झगरा सुरू हो गे।
रोज-रोज, रात-दिन के झगरा के मारे जोड़ी के मन उचट गे। सतवंतिन ल अघर म छोड़ के निकल गे परदेस, व्यापार करे बर। जावत-जावत सतवंतिन ल गजब समझाइस – ‘सतवंतिन! मोर हिरदे के मया, मोर आँखी के पुतरी, तंय संसो झन कर; बहुत जल्दी लहुट के आहूँ ,तोर बिना का मंय जी सकत हँव? गाड़ा भर के पइसा कमा के लाहूँ , नवा घर बनाबोन, नवा दुनिया बसाबोन, सबले अलग, सबले दुरिहा; सबले सुंदर, सबले न्यारा जिहाँ बस तंय रहिबे, मंय रहिहू , अउ कोनों नइ रहय।’
पिया ह निकल गे पइसा कमाय बर परदेस; सतवंतिन ल चार-चार झन डायन मन के भरोसा छोड़ के।
जेठानी मन तो कलकलाय बइठेच् रहंय, तपे के सुरू कर दिन। सतवंतिन के दिन गिने के सुरू हो गे। एक दिन निकलिस, दू दिन निकलिस; रस्ता निहारत छः महिना निकल गे। जोड़ी के दरसन नइ हे। देखत-देखत आँखी पथरा गे। रोवत-रोवत आँसू सुखा गे। हे जोड़ी अब तो आ जा। मरे के पहिली तोर मुँहू ल एक घांव तो देख लेतेंव।
एक तो जोड़ी के दुख, ऊपर ले जेठानी मन के तपई; सतवंतिन के शरीर ह निच्चट हाड़ा-हाड़ा हो गे हे, पिया दरसन के आस म को जनी कते करा जीव ह अटके होही?
बड़े जेठानी के जी कलकलाय रहय, कथे – ‘नांगर के न बक्खर के,दँउरी बर बजरंगा।अरे छिनार, हमला तपे बर तोर धगड़ा ह तोला इहाँ छोड़ के मुंड़ाय हे। को जनी, साधु बन गे होही कि जोगी? तंय काबर इहाँ हमर छाती म बइठ के दार दरत हस। बइठे-बइठे खाथस, शरम नइ आय?’
मंझली जेठानी तो वोकरो ले नहके हे। छटना भर धान ल ला के सतवंतिन के आगू म भर्रस ले मड़ा दिस। किहिस – ‘अरे कलमुँही, बड़ा सतवंतिन बने बइठे हस। बिन बहना, बिन मूसर, बिन ढेंकी के ये धान ल अकेल्ला कुट के ला, तब जानबोन कि तंय सिरतोन के सतवंतिन आवस।’
सब झन घर म खुसर गें। संकरी-बेड़ी लगा दिन।
सतवंतिन के सत के परीक्षा हे।
छटना के धान ल मुड़ी म बोही के निकल गे जंगल कोती सतवंतिन ह। बदन म ताकत नइ हे। लदलद ले गरू धान, मुड़ी ह डिगडिग-डिगडिग हालत हे। कनिहा ह लिचलिच-लिचलिच करत हे। माथा ले तरतर-तरतर पसीना बोहावत हे। पेट म अन्न के एक ठन दाना नइ परे हे। भूख-पियास म जिवरा ह पोट-पोट करत हे। धकधक-धकधक छाती ह धड़कत हे। बइसाख-जेठ के दिन, मंझनिया के बेरा, धरती-अगास ह तावा कस तिपे हे। आगी के लपट कस झांझ चलत हे।
हे भगवान, हे धरती माई, तोरे सहारा हे; रक्षा कर।
बीच जंगल म बर रुख के छंइहा म बइठ के सतवंतिन ह धार मार-मार के रोवत हे। कोन सुने वोकर रोवइ ल? कोन पोंछे वोकर आँसू ल। न कँउवा काँव करत हे, न चिरई चाँव करत हे।
विही बर रुख म एक ठन बाम्हन चिरई ह अपन खोन्धरा म बेर ढारत बइठे रहय। सुन पाथे सतवंतिन के कलपना ल। तीर म आ के कहिथे – ‘तंय कोन अस बहिनी? का नाव हे तोर? कोन गाँव के दुखियारिन आवस? का दुख पर गे हे तोला कि कटकटाय, बीच जंगल म बइठ के रोवत हस। बघवा-भालू के तोला डर नइ हे?’
सतवंतिन ह कहिथे – ‘का दुख तोला बतांव बहिनी। छः महिना हो गे हे, पति ह परदेस निकसे हे। जेठानी मन धान कुटे बर पठोय हें। बिन मूसर, बिन बहना, बिन ढेंकी के ये छटना भर धान ल मंय कइसे कूटंव। एको बीजा चाँउर झन टूटय। का करंव? कइसे अपन सत के परछो देवंव?’
बाम्हन चिरई ह सतवंतिन के मुँहू ल देख परथे, हे भगवान, ये तो मोर सतवंतिन गोई आय। येकरे अंगना म खेल-कूद के जिनगी बीते हे। आज ये बीपत म हे, करजा उतारे के मौका आजे हे। कहिथे – ‘हत् जकही, एकरे बर तंय जंगल म बइठ के रोवत हस? हमर रहत ले तंय फिकर करथस? ये तो हमर बर छिन भर के काम आवय। घर ले हुंत पारे रहितेस, हम दंउड़ के आय रहितेन। चुप हो जा बहिनी, चुप हो जा। रोवत आय हस, हाँसत भेजबोन। जोड़ी के फिकर करथस, झन कर; सच कहिथंव, तोर जोड़ी घला तोर बिना तरसत हे। गाड़ा भर सोना-चादी, मुंगा-मोती जोर के आवत हे। बड़ जल्दी पहुँचने वाला हे। बाम्हन चिरई के तंय बिष्वास कर।’
बाम्हन चिरई मन कभू लबारी बात नइ बोलय। जोड़ी जल्दी आने वाला हे? सुन के सतवंतिन के मन हरिया गे।
बाम्हन चिरई ह बर रुख के डारा म बइठ के अपन पील-पांदुर मन ल हुंत करात हे – ‘अरे आवव रे मोर पील-पांदुर हो, दंउड़ के आवव। हमर सतवंतिन बहिनी ऊपर बजरा बीपत परे हे। छटना भर धान ल अइसे फोलव कि एको बीजा चाँउर झन टूटय। आज तुंहर परछो हे।’
छिन भर म जंगल भर के बाम्हन चिरई मन सकला गें। भिड़ गे धान फोले बर। बात कहत चाँउर अलग अउ फोकला अलग।
मिट्ठू मन बात कहत अमरित कस मीठ-मीठ गरती आमा के कूढ़ी लगा दिन। किहिन – ‘खा ले बहिनी, जीव जुड़ा जाही।’
सतवंतिन ह खीला-खीला कस छटना भर चाँउर ल बोही के घर लहुट गे। वोकर मन हरियाय हे। जोडी जल्दी लहुटने वाला हे, बाम्हन चिरई के कहना हे।
देख के जेठानी मन ठाड़े-ठाड़ सुखा गें। सोंचत हें – ‘अभागिन ह जरूर कोनों जादू-मंतर जानत होही।’
सतवंतिन के पसीना सुखाय नइ हे, अंतर-मंझली जेठानी ह कहिथे – ‘वाह, बड़ सती सतवंतिन नारी हस। जेवन ल घला अपन सत के आगी-पानी म रांध डर? चुल्हा कामा जलही, तोर हाथ-गोड़ म? जा जंगल, अउ कतिक सती नारी हस ते बिन डोरी-बंधना के बोझा भर लकड़ी ला के बता।’
सबले छोटे जेठानी ह करसी ल कलेचुप वोकर आगू म ला के मड़ा दिस। एले कस किहिस – ‘येदे म पानी घला ले आबे मोर मयारुक बहिनी, जेवन काइसे बनही बिन पानी के? थूँके-थूँक म बरा नइ चूरय।’
सतवंतिन ह करसी ल देखथे, एक आगर एक कोरी टोंका करे हें बइरी मन – ‘हे भगवान कइसे लाहूँ येमा पानी?’
सतवंतिन ह निकल गे जंगल कोती। बोझा भर लकड़ी सकेल के बइठे हे भोंड़ू तीर। कलप-कलप के, सुसक-सुसक के रोवत हे, ‘कामा बोझा बाँधंव?’
कटकटाय बीच जंगल म, जिहाँ न तो चिरई ह चाँव करत हे न कँउवा ह काँव करत हे। भोंड़ू के नागिन ह सोचथे, सरी मंझनिया के बेरा, कोन दुखियारिन ए, मोर भोंड़ू तीर बइठ के धार-धार रोवत हे? वोला दया आ गे। निकल के देखथे – हे भगवान, ये तो मोर मयारुक सतवंतिन बहिनी आय। दिया भर-भर के मोला रात दिन कतरो दूध पियाय हे। येकर करजा ल आज नइ छूटेंव तो कभू नइ छूट सकंव। कहिथे – ‘हे सतवंतिन बहिनी, हमर रहत ले तंय काबर फिकर करथस?’
नागिन ह डोरी बनगे। बोझा ह बंधा गे। सतवंतिन ह हाँसत बदन बोझा भर लकड़ी ल धर के घर आ गे।
हे भगवान, अब टोंड़का करसी म पानी कइसे लाँव?
तरिया के पनिहारिन घाट म बइठ के कलप-कलप के रोवत हे, सतवंतिन ह। हे भगवान अब मोर सहायता करने वाला कोन हे?
घाट के मेंचकी मन कहिथें – हमर रहत ले काबर रोथस बहिनी, झन रो। एकेक ठन टोंड़का म अइसे चमचम ले बइठबोन कि बूंद भर पानी नइ गिरय। चल उठा करसी ल।
करसी भर पानी घला आ गे।
जेठानी मन सोचथे, नारी हो के एक सतवंतिन नारी के परछो ले के बड़ भारी अपराध कर परेन, हे भगवान छिमा करबे।
दिन बूड़े बर जावत हे। सतवंतिन ह जेवन बनाय के तियारी करत हे।
वोती जेठानी मन के चेथी डहर के आँखी मन अब आगू डहर आवत हे। ‘हे भगवान! ये का कर परेन? सती सरीख सतवंतिन बहिनी ल बिन अपराध नाना प्रकार ले दुख देयेन, तपेन; क्षिमा करबे भगवान। हमर सतवंतिन सिरतोनेच के सतवंतिन हे।’
चारों जेठानी सतवंतिन ल पोटार-पोटार के क्षिमा मांगत हें।
सतवंतिन के जेवन चुरत हे। वाह, का महमहई बगरत हे जेवन के। गाँव भर महर-महर करत हे।
मिट्ठू मन के अमरित कस आमा घला अपन असर बतात हे। सतवंतिन के कोचराय-अइलाय बदन ह धीरे-धीरे भरात हे, हरियात हे, चेहरा ह फूल कस खिलत हे।
वोती परदेसी जोड़ी के बइला गाड़ी ह घला बियारा म ढिलात हे। बियारा म सब सकला गें। भउजी मन अचरज म बूड़े हे; देखथें, सेठ-महाजन कस दिखत हे देवर ह। गाड़ा भर ठस-ठस ले भराय हे धन-दोगानी ह। सबो परिवार ल देख के परदेसी के मन ह हुलसत हे। आँखी ह चोरी छुपा सतवंतिन ल खोजत हे, हे भगवान! कहाँ हे मोर सतवंतिन ह?
सतवंतिन ह मान करे बइठे हे अपन खोली म।
पाँचों भाई अउ भउजी मन जेवन करे बर बइठे हें। सतवंतिन ह हुलस-हुलस के सब ल जेवन परोसत हे। सब झन कहत हें – ‘वाह! आज के जेवन तो अमरित कस मिठाय हे।’
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सतवंतिन के जोड़ी मिल गे। जेठ-जेठानी मन के मन घला साफ हो गे। वोकर दुख के दिन बीत गे। हे भगवान, हे तुलसी माई, मोर मोंगरा गोई के घला वइसने बनौती बना दे। यहू ह तो एक झन सतवंतिनेच् आय। बाम्हन चिरई ह दसमत पेड़ के डारा म बइठे सोंचत हे, देवी-देवता के बिनती करत हे, मनौती मनात हे, आँखी डहर ले तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे।
मोंगरा गोई के समान मन अंगना म बगरे हे। मोंगरा गोई ह बइठे हे, कलप-कलप के रोवत हे। कोन वोकर आँसू पोंछे?
सास राक्षसिन के मुँह थिराय के नाव नइ लेवत हे।
बाम्हन चिरई ह कलप-कलप के अपन पील-पांदुर मन ल बलावत हे। अरे आवव रे मोर पील-पांदुर हो, दंउड़ के, झप कुन आवव; जइसे हमर पुरखा मन सतवंतिन के दुख हरे रिहिन, तहूँ मन मोर मोंगरा गोई के दुख ल हरव, आज बीपत के ये बेला म तुँहरे आसरा हे।
गाँव भर के बाम्हन चिरई मन बात कहत सकला गें। मिट्ठू, कोयली, रम्हली मन घला अपन-अपन पील-पांदुर संग आ गें। मोंगरा गोंई के दुख ल सब जानत हें, सबके आँखी ले आँसू चुचवात हे। सब झन सोंचत हें, कोन ढंग ले मोंगरा गोई के मदद करन?
बाम्हन चिरई ह सब ल सतवंतिन के कहिनी सुनात हे।
हमर पुरखा मन सतवंतिन के जउन तरह मदद करिन, का वइसने हमन मोंगरा गोई के मदद नइ कर सकन?
एक झन ह रोवत-रोवत कहिथे – ‘सतवंतिन ह सतजुग के नारी रिहिस। सत के जमाना रिहिस, मनखे के मन म सत-ईमान थोर-बहुत बाँचे रिहिस, सिराय नइ रिहिस। हिरदे के कोनों कोन्टा म दया, मया, प्रेम, दुलार, बाँचे रहय। भला-बुरा, अच्छा-खराब के परख रहय। आत्मा म धन के लालच अमाय नइ रिहिस। आज के मनखे मन तो धन के लालच म अँधरा बन गे हें। हिरदे पथरा गे हे। शरीर तो मनखे के हे पर हिरदे म तो राक्षस बइठे हे। का कर सकथन?’
दूसर ह कहिथे – ‘धान फोले के होतिस त छटना भर ल कोन कहय, गाड़ा भर धान ल मिलखी मारत फोल के मड़ा देतेन, कार, अउ लाखों रूपिया कहाँ ले लाबोन? इँखर मन के पेट ह अनाज म नइ भरय, ये मन तो धन के भूखे हें। का कर सकथन।’
बात सही हे।
मिट्ठू कहिथे – ‘वो जमाना सत के रिहिस। पेड़ मन म अमरित कस फल फरंय। अब न तो वो जंगल हे, न वइसन अमरित फल देवइया पेड़ हें, कहाँ ले लावंव अमरित फल?’
न पखेरू मन तीर, न आरा-पारा वाले मन तीर, न जात-गोतियार वले मन करा, न गाँव के पंच-सरपंच करा, ककरो तीर कोनों उपाय नइ हें मोंगरा गोई के बीपत हरे के। सब अपन-अपन ठीया लहुट गें।
बाम्हन चिरई ह अकेला बइठे सोंचत हे – ‘हे दुनिया बनाने वाला, नारी ल का तंय दुखेच भोगे बर गढ़े हस। काबर सिरजथस तंय बेटी? एक तो तंय बेटी झन सिरजे कर, सिरजथस त वोकर दहेज बर सोना-चाँदी, रूपिया-पइसा, धन-दोगानी, मोटर-कार, सब के बेवस्था पहिली-पहिली कर दे कर। खबरदार! आज ले तंय कहूँ गरीब बाप के कोरा म बेटी सिरजेस ते। गरीब माँ-बाप मन आँखी के पुतरी कस बेटी ल अँचरा के छाँव म रखथें, पढ़ाथें-लिखाथें, तोर सृष्टि के रचना करे बर बर-बिहाव करथें; तंय का करथस? बता निरदयी, तंय का करथस? दाईज के नाम ले के वोला जीते-जी जला के, फांसी म लटका के मार देथें ससुरार वाले मन। तंय का करथस, तंय का करथस बता? सरग ले तमासा देखथस? तोर हिरदे ह जुड़ाथे?………अरे इंसान हो, अरे गाँव वाले हो, भगवान तो पथरा के होथे, वो का कर सकही? तुम तो हाड़-माँस के बने हो, भगवान ह तो तँुहला हाथ-गोड़ देय हे, दिल देय हे, दिमाग देय हे, तुम तो कुछ कर सकथो। तुँहर दुनिया म नियम हे, कानून हे; सोंचव, मोर मोंगरा ह का अपराध कर डरे हे? का के सजा देवत हव वोला? काबर तहूँ मन पथरा बन गे हव?’
मोंगरा गोई ह रोवत-कलपत उठ के लटपट समान मन ल उठा के अपन खोली कोती जावत हे। राक्षसिन ह रस्ता रोक के खड़े हे। सास के गोड़ म लपट-लपट के मोंगरा ह कल्पत हे।
वोती बाम्हन चिरई ह दसमत के डारा म बइठ के सोंचत हे। हे तुलसी माई, अब का उपाय करंव?
भोंड़ू वाले नागिन अउ तरिया के मेंचकी मन के सुरता आ गे। सतवंतिन के रक्षा वहू मन तो करे रिहिन; आज मोंगरा ऊपर आय हे, कुछ तो उपाय करहीं।
गाँव के बाहिर तरिया के पार म बड़े जबर भोंड़ू हे। उहाँ रहिथे दुधनागिन। विही भोंड़ू म बइठ के बाम्हन चिरई ह दुधनागिन ल मोगरा के बजरा-बीपत के कहानी सुनात हे। सुन-सुन के नागिन घला धारो धार रोवत हे।
दुधनागिन ह कहिथे – ‘हे बहिनी, लकड़ी के बोझा होतिस ते एक बोझा ल कोन कहय, गाड़ी भर ल बाँध-बाँध के वोकर घर म लेग देतेंव। कहाँ ले लावंव मोटर-कार, कहाँ ले लावंव रूरिया-पइसा। तंय कहिबे, ते तुरते जा के डस आथों राक्षस-राक्षसिन मन ल। फेर येकर ले का मोंगरा गोई के दुख ह हरा जाही?’
बाम्हन चिरई ह कहिथे – ‘बने कहिथस बहिनी, कोन्हों ल डसना हमर काम नो हे।’
तरिया के मेचकी मन ल सकेल के अपन गोई के कहानी ल सुनात हे बाम्हन चिरई ह। कलप-कलप के चिरोरी करत हे – ‘चलव बहिनी हो, तुम तो सबर दिन के सतवंतिन के दुख हरइया आवव; चलव मोर गोई के दुख ल हर लव।’
का करंय बिचारी मेचकी मन? कहाँ ले लावंय मोटर-कार, कहाँ ले लावंय रूपिया पइसा?
बाम्हन चिरई अब कहाँ जावय? का उपाय करय?
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एक-एक जुग कस एक-एक दिन बीतत हे। दिन-दिन मोंगरा गोई के दुख ह बाढ़त हे।
एक दिन गोई के माँ-बाप ल को जानी कइसे गोई के सुरता आ गे, आइन देखे बर। गोई के हालत ल देख के उँखरो आँखी ले तरतर-तरतर आँसू बोहाय लगिस।
दाई-ददा के गोड़ मन ल पोटार-पोटार के, कलप-कलप के गोई ह कहत हे – ‘माँ, मोला नौ महीना ले अपन उदर म धारन करइया माँ, दुनिया भर के दुख-तकलीफ ल सहि-सहि के मोला जनम भर सुख देवइया मोर मयारुक माँ, अपन छाती के बूँद-बूँद दूध ल मोर मुँह म निचो-निचो के मोर पालन-पोशण करइया माँ, मोर ये दशा ल देख के तोला मोर बर चिटको दया नइ लगय? बेटी के ये हालत ल देख के तोला चिटको दया नइ लगय माँ? मोला इहाँ ले ले चल माँ। ये मन मोला मार डरहीं माँ, मोला इहँा छोड़ के झन जा माँ ……।’
बाबू जी के गोड़ ल पोटार-पोटार के कहत हे – ‘बाबू जी! मोर सबले जादा मयारुक बाबू जी, मोला अँगठी धर के रेंगे बर सिखइया बाबू जी, अपन गोदी म रात-दिन मोला झुलना झुलइया मोर बाबू जी, तोर गोद म अब मोर बर चिटको जगह नइ बाँचे हे? मंय का अतेक भारी हो गे हंव बाबू जी? मंय इहाँ नइ बाँचव बाबू जी, नइ बाँचव। मोला इहाँ ले ले चल। भाई-भउजी के सब तिरस्कार ल सहि लेहूँ बाबू जी। तुँहर जूठाकाठा ल खा-खा के जी जहूँ बाबू जी, मोला इहाँ छोंड़ के झन जा। बाबू जी, मोला इहाँ झोड़ के झन जा। मोला फेर जीयत नइ देखबे बाबू जी, मोला इहाँ ले उबार ले। कुकुर पोंसे बरोबर मोला अपन घर म राख लेबे बाबू जी फेर मोला इहाँ ले ले चल। मोला इहाँ ले ले चल बाबू जी, दया कर।’
मोंगरा के कलपना ल देख के पथरा घला टघल जातिस फेर दाई-ददा के हिरदे ह नइ टघलिस, बजरा-पथरा बन गे। नइ लेगिन बेटी ल। अपन आँखी के पुतरी ल, अपन करेजा के चानी ल ये नरक म मरे बर छोड़ के चल दिन।
बाम्हन चिरई हा सोंचत हे – ‘हे भगवान! कोन जिनिस ले तंय बनाय हस आदमी ल? आदमिच् के भीतर देवता हे, आदमिच के भीतर राक्षस हे, पिशाच हे, शैतान हे, डायन हे, प्रेत हे। आदमिच के भीतर अमृत हे, जहर हे। प्रेम भी हे, घृणा भी हे; दया भी हे, निर्दयता भी हे; पापी भी हे पुण्यात्मा भी हे। एक आदमी के भीतर के आदमी रहिथें? का अजीब योनी गढ़े हस भगवान आदमी ल। ककरो हिरदे ह मोम के बने हे त ककरो हिरदे ह बजुर के।
दाई-ददा बर घला बेटी ह का अतेक पराया हो जाथे? बेटी के बिहाव करके माँ-बाप ह का अपन दायित्व से मुक्त हो जाथे, हो जाना चाहिये? का बेटी बर ये दुनिया म कोनों ठउर नहीं हे?….. ।’
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छः महिना पहिली ये अँगना म कतका उछाह होय रिहिस हे। अउ आज ? आज रोवा-राही पड़े हे।
बाम्हन चिरई व्याकुल हो के जिती-तिती अपन मोंगरा ल खोजत हे। ये झरोखा ले झाँकत हे, वो झरोखा ले झाँकत हे; मोंगरा के खोली के झरोखा ले झाँक के देखथे। मोंगरा ह अपन खोली म सुते हे। पर्रस म लकड़ी बरोबर पड़े हे। ‘हे भगवान! पलंग-सुपेती म सोने वाली मोर फुलक-झेलक मोंगरा ह आज फर्रस म काबर सुते हे? चरबज्जी उठ के बुता-काम, पूजा-पाठ करइया मोर मोंगरा ह आज दस बजत ले लकड़ी बरोबर फर्रस म काबर परे हे ? दाई-माई मन वोकर चारों मुड़ा बइठ के काबर रोवत हें?’
बाम्हन चिरई के जी धक ले हो गे। करेजा ह मुँह कोती ले बाहिर आ गे। तब का मोर गोई ल, मोर गियाँ ल, मोर मोंगरा ल मोर सतवंतिन ल ये राक्षसिन-राक्षस मन आखिर मारिच् डरिन? वोकर हिरदे ले चित्कार निकल गे, चीं ………..। ‘हत रे पापी हो, कसाई हो, हत्यारा हो; निरपराध, निष्पा प, निर्मल गंगा सरिख मोर गोई ल तड़पा-तड़पा के मार डारेव रे चण्डाल हो; सात जनम ले तुँहर आत्मा ल कभू षांति झन मिलय।’
गाँव भर जान गें, गँऊटिया के बहू मर गे। एक-एक झन कर के आरा-पारा, जात-गोतियार, सगा-सोदर, पंच-सरपंच अउ गाँव भर के आदमी गँउटिया के अँगना म सकला गें। दरोगा-पुलिस घला आ गे हें। सब मुड़ी ओरमाय बइठे हें।
बाम्हन चिरई के पील-पांदुर मन घला जान डरिन। मिट्ठू , रम्हली, कोयली, कउँवा, सब जान गे हें। सब सकला गे हें। कोन्हों छत म बइठे हें त कोन्हों छानी-परवा म बइठे हें। परवा म एको ठन खपरा अइसे नइ होही जेमा कोई पखेरू नइ बइठे होही। अँगना म कोरी अकन पेंड़ हे, कान्हों पेंड़ के एको ठन पत्ता अइसे नइ होही, जउन म कोई पखेरू नइ बइठे होही। न कोई चींव करत हे, न कोई चाँव करत हे। न कोई दाना चुगत हे, न कोई पानी पीयत हे। सब रोवत हें, सब कलपत हें – ‘हमर मोंगरा के हत्या करने वाला हत्यारा हो, सातों जनम ले तुँहर आत्मा ल षांति झन मिलय।’
तरिया पार के भोंड़ू के दूधनागिन अउ पानी बीच रहवइया मेंचकी-मेंचका मन घला जान गे हें। उँखरो आँसू थमत नइ हे; वहू मन कलप-कलप के कहत हें – ‘हमर सतवंतिन के, हमर मोंगरा के परान लेने वाला हत्यारा हो, सातों जनम तुँहर आत्मा ल षांति झन मिलय।’
फुलवारी म आज एको ठन नवा फूल नइ फूले हे। एको ठन पेड़ के न पत्ता डोलत हे न डारा मन हालत हें। सब रोवत हें; रो-रो के कहत हें – ‘हत् रे चण्डाल हो, फूल सही कोमल, निरपराध बहू के हत्यारा हो, तुँहर आत्मा ह सातों जनम तक जुड़ाय मत।’
हजारों आदमी सकलाय हें। सब रमायन, गीता अउ भागवत के बात करत हें। पाप अउ पुण्य के बात करत हें, धर्म अउ मोक्ष के बात करत हें फेर सतवंतिन के गोठ कोन्हों नइ करत हें ; मोंगरा के गोठ कोन्हों नइ करत हें।
बाम्हन चिरई ह सोंचत हे – सतवंतिन बिना, मोंगरा बिना, बेटी बिना, बहू बिना का धरम के रचना हो सकथे? सृष्टि के, दुनिया के रचना हो सकथे? समाज, साहित्य, संस्कृति अउ इतिहास के रचना हो सकथे?
कतेक विचित्र रचना रचे हे विधाता ह आदमी के रूप म? कतेक बिचित्र हे ये दुनिया ह? कतेक विचित्र होथें आदमी के जात?
दाई-ददा मन घला आ गे हें; रो-रो के बेहोश होवत हें । होश म आवत हें, फेर रोवत हें, फेर बेहोश होवत हें। फेर अब का पछताना जब चिड़िया चुग गें खेत।
डोकरी दाई घला आ गे हे। बीच अँगना म सबके आगू म खड़ा हो के दूनों हाथ ल अगास डहर उठा के, चूंदी ल छितरा के बही-भूती कस कलपत हे; कलप-कलप के बचनू ल कहत हे – ‘अरे बचनू ! हत् रे अभागा, ये कर डरेस तंय?’
सैकड़ों आदमी सकलाय हें, सब चुप हें, सब कायर हें, सब डरपोक हें। डोकरी दाई ह कलपत हे – ‘‘हत् रे पापी हो, ये कर डारेव?’’
बाम्हन चिरई ह सोंचथे, ‘ये ह कलजुग ए; कलजुग म सरापा- बखाना करे ले कोई नइ मरे। कोई ल नइ लगे सरापा-बखाना, दुआ-आशीष ह। कोई चमत्कार नइ होय कलजुग म, करे बिना कुछ नइ हो सके। गाँव, परिवार, समाज, कानून भले चुप बइठे रहंय; मय नइ बइठों चुप। अपराधी ल सजा मिलनच् चाही।’ वोकर हिरदे के दुःख ह अब रोष म बदल गे। मारे क्रोध के शरीर ह काँेपे लगिस । डेना मन फड़फड़ाय लगिन। शरीर म पता नहीं कहाँ के ताकत आ के समा गे, पूरा ताकत लगा के कहिथे, चीं ……….। उड़ के सीधा गिस, पूरा ताकत लगा के गँउटनिन के मुँहू म चोंच ल गड़ा दिस; डायन के चेहरा ह रकत म डूब गे। गँउटिया के मुँहू ल नख म कोकन के लहू-लहू कर दिस। बिसु बाबू डहर झपटिस, वोकर तो आँखिच् ल फोरना हे।
आदमी मन बोकखाय बइठे हें।
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