कोनो कहिदिस, ‘गदहा’ अउ हम ‘गदहा’ बन जाबो? नहिं न? त फेर का सोचना, डरना।
अतका बात याद रखव दुनिया म चाहे कतको बुराई राहय, बुरा होवय, मनखे ल अपन अच्छाई नई छोड़ना चाही। जीत अउ जय एक दिन अच्छाईच्च के होथे। त करना हे माने करना हे। बस, होगे?
जगमग-जगमग उजियारा म, जिनगी के जम्मो आनंद, खुसी, जम्मो, उत्साह-जोस भरईया, मईया के नवरात्रि। दु:खी, डण्डी सबके दु:ख-भूख भाग जाथे। फेर वो गांव म घोर अंधियारी, सन्नाटा। कारन-दू बछर पहिली, एहि नवराति के तइयारी म बइठक म, झगरा मातगे राहय, मार-कुटई घलो। बात एकदम नानक। ‘हम ला बीड़ी नई मिलय,’ हम ला परसाद नई मिलय, ‘ओहि मेर बइठ के खात-पियत रहिथें, एक फूंक मिलय न एक कौंरा’, नई देखे हन कभू अइसन दरिदरी…। बात बढ़ाए के सरल तरीका बात अउ बात घटाए के अउ सरल तरीका ‘हां’ म ‘हां’, फेर गांधीगिरी कोन करहि आज? सब भगतसिंह, चंद्रशेखर समझथें अपन आप ल अउ हर दूसर ल अपन ले नीचा, अंगरेज। अउ का? तभे ले नवराति मनाए के बात सोंचना घलो जुलूम, जहरा।
एक दिन का होईस? गंजेडी-ग़ंजेड़ी टूरा मन बइठे राहंय मंच म। बम के नाम म दम मारत। गोठियावत, गपियावत। एक झन अचानक कहिथे- ‘ये ह! चलव, ये साल दुरगा मढ़ाबो रे।’ ‘नई जानस? अउ बवाल करवाना हे, कोखरो मुंड़-कान फोरवाना हे जेन…।’ दूसर काटिस। ‘हव-हव।’ तीसर झोंक लीस बात ल टप्प ले। ‘चलव सही म! का होही? कोन कइहि अउ काबर? कोनो रंगरई-धंगरई करत हन जेन…। गांव म सुग्घर चहल-पहल होही। डर भाव, अंधियारी, उदासी सब भाग जाही उल्टा पांव।’ ‘फेर कहूं बवाल…।’ येमा बवाल के का सवाल यार। सियान मन ल हम पूछबे नई करन। सठियाए सियान मन फेर ओही-बिड़ी, माखुर अउ परसाद के सुवाद खोजहिं, लड़हिं। ‘ओ तो ठीक हे, फेर कहां ले पाबो पईसा ओतका कन? कहे भर म थोड़े हो जाही भाई। दूसर के मुंह म तो कोढ़हा के रोटी बड़ मिठाथे, खुद…।’ ‘पईसा के जुगाड़ हमीं करबो यार। काबर कोखरो मेर मांगबो।’ ‘हमीं?’ ‘हव हमी भाई! गांजा, गुटखा, मंजन म जेन खरचा करथन न। तेन बंद आज ले कटाकट! अभी डेढ़-दू महिना बांचे हे। अराम से एकाद हजार जोर लब दसो झन। अउ का हे? दस म दनादन हो जाहि नवराति। कर लब नहि?’ ‘हव, ए तो हो जाहि’, ‘त होगे न!’ ‘हव… हव… हव…।’ ‘फेर…!’ एक झन ल अभी तक गरू-गरू गलते राहय। ‘तैं यार बड़ डरपोकना हस।’ संगी मन भरोसा देइन ‘कोनो गलत काम करत हन का जेन…?’ आदमी तो गलत काम करके घलो यार सीना तान के घूमथे, त हमन तो फेर जागरन के, माई सेवा के काम करबो काहत हन। अइसे भी चार मुंह म आठ गोठ, फेर गलती करबो तभे डर्राबो। नई जानस त जान ले राह- अच्छा काम के पाछू अच्छाई के मालिक के हाथ अउ साथ होथे। कहईया ल कहन धकबो। अऊ फेर काखरो कहे से का लेना-देना। कोनो कहिदिस, ‘गदहा’ अउ हम ‘गदहा’ बन जाबो? नहीं न? त फेर का सोचना, डरना। अतका बात याद रखव दुनिया म चाहे कतको बुराई राहय, बुरा होवय, मनखे ल अपन अच्छाई नई छोड़ना चाही। जीत अउ जय एक दिन अच्छाईच्च के होथे। त करना हे माने करना हे बस। होगे? ‘हव!’ ‘डन!’ हाथ म हाथ, बात म बात मिलादिन जम्मो झन।
लगगें तइयारी म। नई जानिन कोनो गांव के। जब बनिस मंच त पूछिन, जानिन- ‘दुरगा माढ़हि।’ कई जन करिन मजाक अउ बिरोध घलो, फेर इरादा हिमालय हे त दुस्मन कुछ कर नई सकय न ओखर पाद अऊ का? आगे नवराति, जगमगागे दीया-बाती। हरियागे जेवरा, जागगे पारा-पारा। झूमगे, मनखे-मनखे। कठवा-पथरा कस मनखे मन देखाबे नई करिन मुख, माई के दरबार मा। बाकी सब झन-लइका, सियान, दाई के दरबार म आके बड़ भागी समझंय, करे लगिन तारीफ, गोठ, ओ लइका मन के साहस, एकता अऊ संकल्प के। हजारों घांव बोलावय जय माता के, अउ देवंय सैकड़ों दुआ, आसीरवाद ओ लइकन ल। नवरातिये म ओ लइकन के समिति बनगे। गांव के पढे-लिखे मनखे घलो जुड़गे। संभाललिन कारज ल। जम्मो नसा, बुराई ल कर दिन हवन खप्पर म माई के। जिनगी के मजा अउ महतम सब समझगे। हिरदे म खुसी छागे।
तेजनाथ
बरदुली पिपरिया, कबीरधाम