दिन भर नांगर के मुठिया धरइ अउ ओहो त..त..त.. कहइ म रग रग टूट जाथे। ढलंगते साट पुट ले नींद पर जाथे। फेर आज तीन दिन हो गे हे रतनू के नींद उड़े। मन म जिंहा चिंता फिकर समाइस तहा न तो नींद परे अउ न भूख लगे। रात आंखी म पहावत हे।
बात बड़े जबर नो हे। बुता छोटे हे, फेर रतनू बर विही ह पहाड़ कस हो गे हे। कोट-कछेरी अउ पुलिस निस्पेक्टर के सपड़ म पड़े से तो बड़े-बड़े के होस गुम हो जाथे, फेर इहां अइसनो बात नो हे।
एक डेढ़ महीना पहिली के बात आय। खेत म ढेलवानी के काम चलत रहय। बारा बजे के बेरा रिहिस होही। रतनू ह खेत ले आय रहय। झंउंहा-कुदारी ल मड़ा के पसीना सुखावत बइठे रहय। राजेस के कुलकइ के अवाज दुरिहच ले सुनावत रहय। अपन लुगाई ल कहिथे – ‘‘राजेस के दाई, सुनत हस, राजेस ह इसकूल ले आवत हे तइसे लगत हे। कतेक कुलकत आवत हे। परीक्षा म पास होइस होही तभे अतेक खुस हे।’’
दुनों के बात अभी पुरेच नइ रहय, राजेस ह आ के आगू म धम्म ले खड़े हो गे। कहिथे – ‘‘बाबू बाबू, मंय पास हो गेंव। सबले जादा नंबर पाय हंव।’’
– ‘‘सेठ के टुरा ले घला जादा?’’
– ‘‘हव, गुरूजी ह बताइस हे, मंय मेरिट म आय हंव।’’
– ‘‘फस्ट किलास म पास होय हस का?’’
– ‘‘वोकरो ले जादा बाबू।’’
रतनू ल फस्ट किलास ले जादा के बात समझ नइ आइस। बात ल बंहकात कहिथे – ‘‘लेड़गच हो जाबे का रे। पास हो के आय हस अउ दाई-ददा के पांव घला नइ परस।’’
राजेस ह लजा गे। टुप-टुप दाई-ददा के पांव परिस अउ हाथ गोड़ धोय बर बखरी कोती भाग गे।
गरमी के छुट्टी कइसे बीतिस पता नइ चलिस। एक दिन रतनू ह खेत कोती जावत रहय। स्कूल तीर बड़े गुरूजी संग भेंट हो गे। बड़े गुरूजी ह किहिस – ‘‘रतनू बने हबरेस जी। तोर राजेस ह बड़ होसियार हे। जउन विसय ल एक घांव समझा देबे, वोकर दिमाग म जस के तस छप जाथे। वोला तंय कंस के पढ़ाबे। समझे।’’
गुरूजी संग ओरभेट्ठा होय के सेती रतनू ह हड़बड़ा गे रहय। चेत आइस त कहिथे – ‘‘राम राम गुरूजी, सब आप मन के आसीरवाद ए। फेर मेरिट काला कहिथे, अतकिच ल समझातेव गुरूजी?’’
गुरूजी – ‘‘हत तेरे के भोकवा। पूरा जिला भर म सबले जादा नंबर पावइया दस झन ल मेरिट कहे जाथे। तोर राजेस के पांचवा स्थान हे।’’
रतनू – ‘‘ओहो…। धन भाग हे गुरूजी। आपे मन के मेहनत आय।’’
गुरूजी – ‘‘तंय तो बड़ कंजूस निकलेस भइ। मिठाई घला नइ खवाएस। फेर बने सुन। परसों ले स्कूल खुलइया हे। टी. सी. ले जा। वोला झपकिन छठवीं कक्षा म भरती कर देबे।’’
बेटा के प्रसंसा सुन के रतनू के छाती गज भर चौड़ा हो गे।
एती स्कूल के खुलइ हो गे, वोती चौमास के बरसा सुरू हो गे। केहे गे हे कि ‘घुरुर घारर जेठ करे, बुढ़वा बइला चेत करे।’ नांगर बइला के चेत तो पहिलिच हो गे रिहिस। बांवत सुरू हो गे। रतनू ल चिंता धर लिस। नांगर बक्खर के चेत करे कि लइका ल भरती करे के चक्कर म पड़े। सोंचथे, हर साल स्कूल खुले के अउ खेती किसानी के काम काबर संघरथे। किसान के तो मुस्किल हो जाथे। पानी गिरइ तो भगवान के हाथ म रहिथे, फेर स्कूल खोले के काम तो सरकार के हाथ के बात आय। वो हर तो आगू पीछू कर सकथे।
रतनू के चिंता इहिंचे ले सुरू होथे। भरती करे के दिन मिडिल स्कूल के बड़े गुरूजी ह साफ-साफ कहि दे रिहिस – ‘‘जतका प्रमाण पत्र धर के लाय हस, वोला जमा कर दे। पटवारी तीर ले आय अउ जाति प्रमाण-पत्र बनवा के लाय बर पड़ही। अभी राजेस ह स्कूल तो रोज आही, फेर येकर बिना वोकर नाव नइ लिखा सके। जउन दिन लाबे, विही दिन नाम ह लिखाही।’’
अब पंदरही पूर गे। आय-जाति प्रमाण-पत्र बनेच नइ हे। आज तो राजेस ह साफ सुना दिस – ‘‘बिना प्रमाण-पत्र बने मंय ह स्कूल नइ जावंव। गुरूजी ह रोज रोज खिसियाथे।’’
अब तो मजबूरी हो गे। दूसर दिन रतनू ह कुकरा बासत रटपटा के उठ गे। खटिया तरी लोटा म पानी माड़े रहय, विही म आंखी धोइस। लकर धकर मंजन मुखारी करिस। ठुकुर ठाकर सुन के देवकी धला जाग गे। रतनू कहिथे – ‘‘राजेस के मां, मंय पटवारी तीर जावत हंव। परमान पत्र बनवाना जरूरी हे। जल्दी जाहूं, जल्दी आहूं। बांवत के पाग बढ़िया हे, खेती म नांगा करना उचित नइ हे। तंय बइला मन ल दाना-भूंसा खवा के अउ मोरो बर बासी-पेज धर के खेत पहुंच जाबे। मंय नौ के बजत ले सीधा खेतेच म पहंुचहूं।’’
देवकी का किहिस। ‘‘डारा के चूके बेंदरा, अशाड़ के चूके किसान। चहा पी लेव। कतका बेर आहू का पता।’’
तब तक रतनू ह बिड़ी सुपचात, लउठी धर के खोर म निकल गे। चिल्ला के कहिथे – ‘‘चहा ल घला खेतेच म ले आबे।’’
हल्का पटवारी ह घाप भर दुरिहा दूसर गांव म रहय। रतनू ह हिसाब लगाइस – ‘‘आधा घंटा जाय के, आधा घंटा आय के। जादा से जादा घंटा भर पटवारी ह लगाही। आठ बजे तक तो लहुटिच जाहूं।’’ उत्ताधुर्रा रेंगे लगिस।
मंुहझुलझुलहा होय रहय। रतनू ह अगास डहर देखिस। पानी गिरे के लक्षन नइ दिखिस। तब तो आज जोरदार बांवत बनही। जैराम ह मुड़ म बिजबोहनी टुकनी ल बोहे, भ्ंाइसा मन ल खेदारत खेत कोती जावत रहय। दुरिहा ले चीन्ह डारिस। कहिथे – ‘‘राम राम रतनू भइया। कमा डरेस? कोन गांव जावत हस जी?’’
रतनू घला राम राम करिस अउ किहिस – ‘‘का बतांव भइया, बताय म घला जीव कलपथे। पटवारी करा जावत हंव।’’
जैराम – ‘‘वहू तो जरूरी हे भइया, लइका के भविस के सवाल हे।’’
रतनू के धियान अब खेत-खार कोती चल दिस। आधा खार जोता गे रहय।
पटवारी घर पहुंच के रतनू ठगाय कस हो गे। कपाट बंद रहय। का पता घर म होही कि नहीं? गगरा बोही के जावत एक झन पनिहारिन बहिनी ह बताइस – ‘‘कोन गांव रहिथस गा भइया। पटवारी करा आय होबे ते वो ह दस बजे सुत के उठथे।’’
सुन के रतनू ह तरवा धर के बइठ गे। मन म कहिथे ‘कइसे कोनो आदमी ह दस बजत ले सुत सकथे।’ मन ह फेर कहिथे ‘काबर नइ सुत सकथे। साहब मुंसी मन के बातेच अलग होथे।’
थोरिक देर बाद विही पनिहारिन ह फेर लहुट के आइस। अब रतनू ह पूछिस – ‘‘कस बहिनी, पटवारी ह दस बजे सुत के उठथे, बने हे। फेर पटवरनिन बाइ्र ह घला दस बजे तक सुते रहिथे?’’
पनिहारिन – ‘‘एके झन रहिथे भइया। बार्इ्र अउ लोग लइका मन, संग म नइ रहय।’’
बइठे बइठे आठ बज गे। रतनू ल रोवासी आय लगिस। मन ल कड़ा करिस, ‘आज के खेती जाय ते जाय, इंहां के टंटा टोरिच के जाहूं।’
बासी खाय के बेरा हो गे रहय। भूख के मारे रतनू के पोटा अंइठे लगिस। मने मन पछताइस कि बने बनाय चहा ल काबर छोड़ के आइस।
चहा घला एक ठन नसच आय। तलब लगे लागिस। नसा के तलब ल रोक पाना बड़ मुस्किल होथे। जानत रहय तब ले बंडी के जेब ल टटोल के देखिस। दस-दस के दु ठो नोट जस के तस रखे रहय। राजा के दरबार चढ़स कि भगवान के मंदिर म। भेंट चढ़ावा तो लेगेच बर पड़थे। आजकल के भगवान साहबेच मुंसी मन तो आय।
रतनू ह पटवारी घर के चंवरा म अनमनहा बइठे रहय। धियान ह खेत कोती गे रहय। एक झन आदमी कोन डहर ले आइस अउ झम्म ले वोकर आगू म खड़ा हो गे। कहिथे – ‘‘राम राम भइया। भोलापुर रहिथस का जी? तोर नांव रतनू हे का?’’
रतनू चकित खा गे। राम राम ल झोंकिस अउ वो आदमी ल चिन्हें के कोसिस करे लगिस। रतनू ल असमंजस म देख के वो अदमी ह फेर कहिथे – ‘‘मोला नइ चिन्हेस? ले का होइस। नान्हे राम आंव। तंय चिंता झन कर। सबले पहिली तोरेच काम ल करवाहूं। मोर कहना ल पटवारी कभू नइ टारय।
रतनू ह नान्हे राम के नाव ल सुने रिहिस। पटवारी के पिछलग्गू ए। वोकर सरी काम ल इहिच ह करथे। पटवारी तो खाली दसखत करइया हरे। पइसा झोरे म पटवारी के बाप आय। वोला लगिस कि कोई पाकिटमार के संगत पड़ गे का? पइसा वाले खीसा ल चमचम ले चपक के बइठ गिस।
नान्हे राम ठहरिस घाघ आदमी। कहिथे – ‘‘आय-जाति बर आय होबे? अरे अभी झार विहिच काम चलत हे।’’
रतनू – ‘‘हव भइया बने परखे। फेर नौ बजत हे। खेती किसानी के दिन। नांगर बइला ल खेत म खड़े करके आय हंव। जल्दी करवा देतेस ते बने होतिस।’’
‘‘सरकारी आदमी। सरकार के दसों ठन काम। दिन लगे न रात। खाली लिखइच पढ़इ तो आय। रात-रात भर जागे ल पड़थे।’’ जोरदार जम्हावत जम्हावत नान्हे ह कहिथे – ‘‘भइया एकदम अल्लर अल्लर लागत हे। चल चहा पी के आबोन। तब तक पटवारी घला जाग जाही।’’
रतनू ह समझ गे। अब दुनों नोट के बचना मुस्किल हे।
वइसनेच होइस। चहा अउ गुटखा-माखुर म वो बीस रूपिया ह स्वाहा हो गे।
दस बजत रहय। नान्हे ह कहिथे – ‘‘ले चल अब साहब ह उठ गिस होही।’’
पटवारी ह अभिचे सुत के उठे रहय। कुरसी म बइठे-बइठे जम्हावत रहय। रकत चुहे कस आंखीं मन दिखत रहय। दूरिहच ले दारू के गंध आवत रहय। नान्हे संग गिराहिक आवत देख के खुस हो गे। आंखी म चमक आ गे। वो मन पहुंचेच नइ रहंय। दुरिहच ले चिल्ला के कहिथे – ‘‘ओ…..हो…नान्हे, कहां रेहे यार, अभी आवत हस।’’ रतनू डहर इसारा करके कहिथे -’’अउ ये महासय ह कोन ए?’’
नान्हे – ‘‘नमस्कार साहब, ये रतनू मंडल ए। भोलापुर वाले। आय-जाति प्रमाण-पत्र खातिर आय हे।’’
जेवनी हाथ के डुड़ी अंगठी अउ डेरी हाथ के हथेली म माखुर-चूना रगड़त पटवारी ह थेरिक देर सोंचिस। माखुर ल ओठ अउ दांत के बीच म दबाइस। बगल के खिड़की बाहिर पिच ले थूंकिस, अउ किहिस – ‘‘हूं….. कुछू लाय हे कि अइसने आय हे?’’
रतनू सब समझ गे, फेर का कहितिस। बोकखाय देखत रहिगे।
नान्हे ह जेवनी हाथ के अंगठा अउ डुड़ी अंगठी ल लफलफा के इसारा करिस कि पइसा पूछत हे। लाय हस कि नहीं।
रतनू ल रोना आ गे। किहिस – ‘‘काली ला के दे देहूं साहब,फेर आज मोर काम ल बना देतेव। तुंहर दसों उंगली के बिनती करत हंव।’’
अतका म पटवारी ह भड़क गे। नान्हे राम ल कहिथे – ‘‘अरे यार तोला के घांव ले चेतांव कि आलतू फलतू आदमी धर के मत लाय कर कहिके। भगा येला। बोहनी बट्टा के बेरा मूड खराब कर दिस।’’
बस्ता के पीछू दारू के बोतल ल लुका के रखे रहय। निकालिस। चाब के ढक्कन ल टोरिस, अउ गट गट आधा ल पी गे। बचत ल नान्हे ल दे के कहिथे – ‘‘ये ले तोर बाटा।’’ अउ तरिया कोती निकल गे।
रतनू राम ल चारों खूंट अंधियारेच अंधियार दिखे लगिस। सोंचिस – ‘‘गरीब के कोनों नइ हे। पहिली गंउटिया-मुकड़दम मन लूटंय, अब ये मन लूटत हें। कहिथें कि गरीब छत्तीसगढ़िया किसान-मजदूर मन ल इंहंा आ के परदेसिया मन लूटत हें, फेर ये तो परदेसिया नोंहे।’’
सब कुरसी के माया आय। कुरसी पा के सब परदेसिया बन जाथें।
कुबेर
(कहानी संग्रह भोलापुर के कहानी से)