‘राऊत नाचा ह महाभारत काल के संस्कृति, कृसि, संस्कृति अउ भारत के लोक संस्कृति ले जुरे हावय। राऊत नाच राऊत मन के संस्कृति आय फेर ये ह भारतीय संस्कृति के पोषक घलो हे।
भारत के संस्कृति कृसि प्रधान हे। ये कारन गाय-बइला, खेत-खार, गोबर-माटी अउ पेड़-पौधा, नदिया-नरवा ले सबो ल मया हावय। येला राऊत नाचा अउ ओखर दोहा के माध्यम ले समझे अउ देखे जा सकथे।’
जगमग-जगमग करत दीया के अंजोर ले देवारी के अंधियारी रात घला पुन्नी रात कस लागथे। लोगन के हृदय के अंगना म हर्स अउ उमंग के तेल-बाती धरे प्रेम अउ भाईचारा के दीया टिमटिमन लागथे। इही टिमटिमावत दीया के अंजोर के एहसास हमर राउतभाई मन के दोहा ले होथे। तभे तो गोवर्धन पूजा के दिन मंझनिया पाहटिया संगवारी मन घर ले अपन-अपन ठाकुर घर सोहई बांध्धे बर जाथे, इही बेरा इंकर दोहा म मया-दया, धरम-करम दर्सन अउ नीति के संदेस सुने ला मिलथे। रंग-बिरंग साज-साा अउ बाजा-गाजा के साथ सौर्य पराक्रम के रूप लिये दोहा पारथे, जेमा कांदी-कचरा अउ रूखराई घला जागे रहिथे।
‘जात के मंय गहिरा संगी, बुधारू मोर नांव।
तरिया के बर कदम असन, गोकुल कस मोर गांव॥’
एक बांसती बहार वाले फुलदार रूख परसा ले बने सोई रुतमन के दोहर म सजे रहिथे। सोहई गाय के गहना होथे-
‘परसा के गहना संगी, गर ल दिये पहनाई
आगू-पाछू मत नाचौ, सान गिरवा न टोराई॥’
रउत के दोहा में त्रेताकालीन लंका के राजा रावन अउ समुंदर के प्रसंग के साथ घर-घर मं जागे तुलसी के बिरवा के बरनन होथे-
‘तुलसी जागे घर म, तुलसी म काहे दोस।
महिमा धरे समुन्दर, रावन बसे परोस॥’
दुवापर युग के कर्नधार सिरी कृस्न के संगीत प्रेम बांस ले बने वाद्ययंत्र बंसी (मुरली) ले पता चलथे। राधा के नींद उड़ई घलो दोहा म रहिथे। बांस के एक विसेस प्रजाति ‘भुलनबांस’ ले ही बने होथे। ये भुलनबांस रउत के दोहा म लहलहात रथै-
‘भुलनबांस के बंसी, ठौं-ठौं बंद लगाई।
अइसे मुरली ठोंके कन्हइया, राधा के नींद उड़ाई॥’
देवारी परब म रउत के पारे दोहा म सांसारिक रिस्ता-नाता अऊ सुख-दुख तो रहिबे करथे, संगे-संग म सामान्य रूख ‘कऊहा’ (अर्जुनवृक्ष) के जागेठउर नरवा ढोरगा होथे। अइसने रींया नाम के पेड़ हर कच्छार म जागे रहिथे-
‘कहवा के जनमन नरवा ढोरगा, रींया के जनम कच्छार
बेटी के जनम मैंहर भये, रोवत जावै ससरार॥’
चिंता अउ दुख के प्रतीकात्मक रूप बंभुर पेड़ दोहा म जागे रहिथे। हरिहर-मोट्ठा पान वाले केरा घलो दोहा म लहलहावत रहिथे-
‘पातर पान बम्भुर के, केरा पान दलगीर।
पातर मुहुं के छोकरी, बात करै गंभीर॥’
पहाड़ म आगी लगे ले चंदन रूख जर जथे। फांफा अउ मृग जइसे साधनयुक्त प्रानी आगी ले बांच जथे, पर असहाय चांटी आगी ले नई उबरे, जइसे प्रसंग रउत के दोहा मं समाय रहिथे-
‘आगी लगे पहाड़ मं, जरगे चंदन के रूख।
फांफा मिरगा उड़ चले, चांटी ल परगे दुख॥’
राउत के दोहा म रूखराई के बरनन ले स्पष्ट होथे कि रूखराई बड़ा महत्वपूर्न जिनीस आय। ये रूखराई दोहा ल तुकबंद रचनात्मक दृष्टि ले अलंकरन करबे करथे, संगे-संग हमर मानव समाज ल जीवन दायक संदेस पठोथे। दोहा मं समाय रूख राई हम ला ‘पेड़ लगावौ पर्यावरन बचावौ’ जइसे तथ्य ले अवगत कराथे। त संगवारी हो, आवौ, देवारी मनावव, पेड़ लगावव, तभे देवारी मनाये म मजा आ ही। जय जोहार…।
टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’
सुरडोंगर ,दुर्ग