छत्तीसगढ़ी साहित्य म अब साहित्य के जमो विधा उपर रचना रचे जात हवय. ये बात हमर भाखा के समृद्धि बर बहुत सुघ्घर आरो आय. गद्य जइसे पद्य म घलव कविता, गीत, हाईकू के संगें संग उर्दू साहित्य के विधा गजल तको ल हमर सामरथ साहित्यकार मन छत्तीसगढ़ी म रचत हांवय. अइसनेहे साहित्यकार जितेन्द्र ‘सुकुमार’ जी के छत्तीसगढ़ी गजल संग्रह ‘पीरा ल कईसे बतावंव संगी’ पढ़े ल मिलिस. गजल के कसौटी म पद्य कइसे कसाथे अउ काला असल म गजल कहे जाथे ये बात बर मैं जादा जानकार नइ हंव. फेर एक पाठक के रूप म ये संग्रह के पद्य मन ह कइसे मन अउ मानस ल झकझोरथे ये बात ल गोठियाये के उदीम करत हांवव.
भाई सुकुमार जी के परिचय संग्रह के आखरी पाना म देहे हवय, संगें संग वरिष्ठ साहित्यकार श्री दिनेश चौहान जी ह ये संग्रह के भूमिका म सुकुमार जी के परिचय म लिखे हवंय के सुकुमार जी हिन्दी अउ छत्तीसगढ़ी गजल दूनों म समान अधिकार ले लिखथें. अउ उमन ल अपन बात कहे बर लम्बा लम्बा लाईन लिखे ल नइ परय. बस अतकेच बात ह सिद्ध कर देथे के उमन योग्य कवि आंय. काबर कि हमर शास्त्र म कहे गए हे के कविता ह गद्य के कसौटी आय. जउन बात कहे बर हम गद्यकार मन ल कई कई पाना कलम ले रंगाना पर जथे तउन बात ल कवि मन दू लाईन म बताये के समरथ रखथें. खासकर गजल म ये विशेषता जबर होथे. सुकुमार जी के गजल संग्रह ल पढ़त खानी ये बात सिद्ध होवत नजर आथे. स्वयं कवि अपन ये संग्रह म अपन माई गोठ कहत लिखथें ‘बनी भूती ल जम के करथंन, बासी पसिया म पेट भरथन. अलकरहा हे हमर चिन्हारी, कब्भू जीथंन, कब्भू मरथन. रहिथंन लांघन अड़बड़ दिन ले, अउ पर के कोठी ल भरथन.’
सुकुमार जी के संवेदना गहिर हवय, उखर हिरदे के पीरा अभी के समाज के बिसंगति अउ बिदरूप ल देख के, बढ़त हवय. उंखर कवि मन एक आदर्श समाज अउ मानवता के स्थापना बर कलपत हावय. उमन अपन इही कलपना के अभिव्यक्ति ’ पीरा ल कईसे बतावंव संगी’ म करें हवंय.
हमर सियान मन कहिथें के, पीरा ह जब असह हो जथे तब ओला कोनो ल बताना चाही. फेर कखरो मेर भी अपन पीरा ल नइ बताये जा सके, तेखरे सेती कवि कहिथे कइसे बतावंव, जउन संवेदना कवि के मन म उमड़त घुमड़त हे तउन संवेदना सुनईया के हिरदे म होही तभे त, वो ह ये किताब के गजल के माध्यम ले कवि के हिरदे के पीरा ल समझ पाही. इही खातिर कवि कहिथे कि तोला कोन तरीका ले बतावंव संगी, तोर मानस म संवेदना के स्तर जतका हे उही स्तर तक समझा पाहूं. ये तड़फ कवि के अनुभव ले उबजे सत्य आए. कवि दीया बन के अंजोर बगराथे, किसान बन के अन्न उबजाथे अउ समाज ल दिसा देखाये बर कविता रचथे. ये सब जीवन जरूरी के रीत आए तभे त कवि कहिथे ‘घर के अंधियार भगाए बर, दीया असन बरे बर परथे. जिंनगी म आघू आए बर, ठंउका गोठ धरे बर परथे. हन किसान बोथन अन ला, काबर भूख मरे ल परथे.’
कवि सुकुमार ये संग्रह म अपन बात कहत छत्तीसगढ़ी के सबद मन ल सांट के अदभुत अरथ, अरथथे. वर्तमान म घटत मया ल कुंआ बावली के रूप म प्रस्तुत करत कवि कहिथें ‘नवा जमाना के नखरा ला देख, मया के कुँआ–बौली पटावत हे.’ इही म आघू उमन मया-परेम अउ रिस्ता-नाता के छूटत डोर ल सोरियावत अउ बुढ़वा मां बाप ल वृद्धाश्रम भेजईया समाज ल कहिथें ‘सकेल के रख डोकरा–डोकरी ल, जम्मो चिन्हारी हमर नंदावत हे.’
ये बात सोरा आना सही आए के झूठ-फरेब ले सुख नइ पाये जा सके ओखर अंत दुखेच होथे. फेर जमाना अइसे हवय के चारो मुड़ा लबारी छाए हे इही बात ल बड़ सुघ्घर ढंग ले कवि कहिथें ‘फसल होही दुख के ऐसो, हरियाये हे लबारी.’ एक जघा कहिथें ‘भोथरहा कस जिनगी ला, मनखे बने पजावत हे.’ जाड़ के बरनन करत कवि प्रकृति के सुघ्घर मानवीकरण करत कहिथें के ‘जाड़ के थोथना ला देखिस ते, जुड़ागे हंडिया के भात कका.’ आघू उमन कम होवत मन के आस अउ सामरथ ल बड़ सुघ्घर प्रतीक ले कहिथें ‘कोडिया हो गईन मन के बईला, हिरदे के खेत घलो परियागे.’ राजनीति उप्पर कटाक्छ करत कई कई जघा सुकुमार जी बहुत सहज रूप म जनता के आहवान करत बड़का बात कहिथें ‘मेहनत मा बिसवास करव, हावे लबरा सरकार जी.’
एक कवि होए के धरम ल निभावत समाज ल नवा रसदा देखावत कवि कहिथे ‘जुरमिल रद्दा गढ़ना हे, सबला आघू बढ़ना हे. छुए बर बादर संगी, सरग निसैनी चढ़ना हे.’ कवि समाज के ये हाल ल देख के लोगन ल पंदोली देवत कहिथें ‘भुलका कर भ्रसटाचारी के घानी ल, बुराई बर तेंहा तीर कमान बन.’ बिदरूप अउ बिसंगति संग लड़े के हिम्मत देवावत कवि मेहनत के कहानी कहिथे ‘पछीना मा नहा तर जबे सुकुमार, नइ लगे रे बइहा गंगा नहाए बर.’ अइसनहे उमन गजल मन म हाना – भांजरा के सुघ्घर प्रयोग करत, प्रतीक अउ बिम्ब के सहारे अपन बात रखथें. समाज ल दिसा देवईया कवि रचनाकार मन के रचना मन म घटत स्तर ल सोरियावत कवि कहिथे के, के अब लोगन के बोली-भाखा म दम नई रहिस वो कहिथे ‘’भोथरा गे लोगन के भांखा–बोली, लागथे अब यहू ला पजवाय बर परही.’ सुकुमार के ये गजल संग्रह ल पढ़त अउ ओखर दिल के उदगार ल हिरदे ले अनुभो करत मन मानस ओखरेच बानी म कहिथे ‘तोर बात मोर मन ला भागे सुकुमार, येला जतन के जी गठियाय ल परही’
–संजीव तिवारी
संपादक गुरतुर गोठ डॉट कॉम
कृति – पीरा ल कइसे बतावंव संगी
(छत्तीसगढ़ी गज़ल संग्रह)
रचनाकार – जितेन्द्र ‘सुकुमार’
प्रकाशक – वैभव प्रकाशन, रायपुर.
पृष्ट संख्या – 88
संस्करण – प्रथम 2015
मूल्य – 80.00
(हिन्दी) 100.00 (अंग्रेजी)