मुकुल के जीव फनफनागे। अल्थी-कल्थी लेवत सोचिस, अलकरहा फांदा म फंदागेंव रे बबा। न मुनिया संग मेंछरई न दई -ददा के दुलार। ये सरग लोक घला भुगतउल हे। ओला लागिस कुछ बुता करतेंव, नांव कमातेंव, पढ़-गुन के हुसियार बनतेंव। वोहा देवदूत ला कथे- मोला लागथे, जिनगीच हर बने रिहिसे।
एक झन पोठहा गौंटिया के एकलौता बेटा राहय मुकुल। दूरिहा के नत्ता-गोत्ता वाली जौंजर छोकरी घला संग मं राहय मुनिया। ओकर अपन बिरान कोनो नी राहय। तेकरे सेती गौंटिया घर पिलपोसवा रिहिस। मुकुल अऊ मुनिया संगे खेलंय, पढ़ंय लड़ंय अऊ मेछरावंय। गौटिया घर सुंता बंधा डारे राहंय। दूनो झिक सगियान होहीं ताहन बिहा कर देबोन। एक दिन मुकुल सिनसिनाय धर लिस। को जनी काय अजार हमार राहय, कोनो थेमा नई पावत राहंय। मुकुल के मन म अइसे गांठ बंधागे ओहर मर गेय हे। काबर के ओला ओकर डोकरी दाई हर आनी-बानी के किस्सा कहानी सुनावत मुकुल के लइकुसहा बुध म गांज-गांज के भर देय राहय- सरग लोक म सुखे सुख रथे। कोनो काम बुता करे नी लागे। पढ़ई-लिखई बिहंचे ले उठई कुछू नी लागे। रोज मेवा, कलेवा, तसमई, अइरसा सुंहारी खाय बर मिलथे। मरई पीटई ला कोन काहय-‘रे बे’ तको नी काहय। चाराें मुंड़ा काहर-माहर मन मतंगी।
मुकुल घातेच कोढ़िया अऊ अलाल राहय। बिहंचे उठई तो भावे नी करे ओला। घेरी बेरी गुन्ताड़ा करय- एक न एक दिन तो ओला अपन बाप के धंधा पानी सम्हालेच ला परही। इहां रोज-रोज लिखई-पढ़ई के झंझट। इसकूल म गुरूजी के धमकी-चमकी, सूंटी चन्चनई। कनबूची अऊ माड़ी भार ठाड़ होवई। सोंच-सोंच के ओकर रूंआ ठड़ियावय। मुनिया संग खेलई, बेलबेलई कतका सुहाथे। कतेक मजा आतिस, कुछू बुता झिनकरे लागतिस काहर माहर खवई, पहिरई मन मुक्तियारी चोनहा करई, आनी-बानी के मेवा मिठई खावत उम्मर पहातिस। अइसे सोरियावत, हदरत, ओला ‘सरगलोख’ के सुरता आवय। ओहा जानत राहय, सरग जाय बर मरे बर लागथे। धीरे-धीरे ओला लागे धरिस ये दे अब मर गीस रे।
सब झन कतको समझईन, फेर एक सुर्री उदेली राहय मोला जल्दी मरघट्टी म पाटव न तुंहरे सेती सरग लोख नइ जा पावत हौं। दई-ददा मन तिखारिन अरे बाबू तैं तो गोठियात बतरात हवस, खात-पीयत हवस। मरे मनखे कुछू खाय न गोठियाय। अरे अइसे हे का? दिमाग उचाट मारिस मुकुल उही बेरा ले खाय गोठियाय अऊ रेंगे बुले बर छोड़ दीस। हार खाके गौंटिया हर ओला मनसुख डॉक्टर करा लेगिस। हाल-चाल बतईस। डॉक्टर हर बने जांचिस-परखिस। ताहन किथे- ‘येला सात दिन म चंगा कर देहूं। फेर जौन बताहूं वैसनेच करे ला परही। गौटिया मान गीस। घर आके डॉक्टर के बताय तियारी करिन।’
दू दिन नहका के मनसुख डॉक्टर ऊंकर घर गीस। गौंटिया मन संग मुकुल के खोली म गीन। मुकुल, निठराय, भुखाय, केंदराय, खटिया म परे राहय। खोली म हबरतेच डागडर बाबू कथे, यहां काये गौंटिया जी, ये मुरदा ला घर म काबर राखे हव? येला मरघट्टी म पाटव काबर नहीं भई? अइसे सुनके जमे झिन कट्ठल के रोय धर लिन। रोहों-पोहों उल्टा खटिया सजईन। गोहार पार के परोसी मन ल बलईन ओती खटिया म निठराय मुकुल मने मन मगन होत राहय। सरग जाय के रद्दा बनगे। अइसे गुनत भीतरे भीतर फुरनात राहय। डागडर बाबू के बताय ढंग ले एक ठक खोली ल चुमुक ले ढांक के आनी-बानी सजाय राहंय। अत्तर, तेल, धूप, मोमबत्ती, ऊदबत्ती सुलगा के काहर माहर करे राहंय। राम नाम सत्त हे, सत्त मं गत्त हे। काहत मरी रंगाय के उदीम करीन। मुकुल सरग लोख जाय के मतंगी म सूत गीस। थोरिक एती ओती किंजार के सजे खोली भीतरी लेगिन। थोरिक बेर म ओकर नींद उमचिस सुसवाय कस किहिस मेंहर कहां हंव….?
‘आप मन सरग लोख म हावो मालिक’ कोकड़ा पांख वाला सेऊक मूंड नवाके किहिस।
‘मोला भूख लागथे’ मुकुल के आरो पाके चारो सेउक मन धरा रपटा एती ओती-दौरिन अऊ सोन-चांदी के थारी, माली (उसने पॉलिस मारे गेय राहय) म ठेठरी, खुरमी, मड़िया पाग, तसमई, सुंहारी परोसे गीस। मुकुल अघावत ले खईस अऊ फेर सुतगे। ताहन ओकर देहें भर अत्तर फोहारा छींचिन। फेर उठिस ताहन उही चारो देवदूत मन, वइसनेच जिनिस फेर पोरसिन। जौन बनिस खाके मुकुल, ममहावत खोली के सुघरई ला किंजर-किंजर के देखिस। देवदूत मन ओकर डेना धरके झुलना झुलईन। बिन बाजा के नाच-गान करिन। उल्थी-पुल्थी करके जोकरई देखईन। मुकुल हांस-हांस के लट्ठरगे। फेर उंघासी लागिस ताहन ओकर हात-गोड़ लगरत पलंग मं सुता दीन। फेर जागिस, ताहन फेर उही मेला तसमई अऊ सेवा जतन करिन। घेरी-बेरी एकेच किसम के खवई अऊ सुतई म मुकुल ला सेठराहा लागे धर लीस त ओहा कथे-
‘दूद, दही, इड़हर, बरा, कुकरी, मछरी, नई मिलही का?’
‘नीही मालिक! सरग लोख म सबे झन ला अइसनेच खाय पीये बर देय जाथे।’
‘अभी दिन हावे धुन रात?’
‘इहां दिन रात नी होय सामी’ देवदूत रूपी नौकर किहिस।
‘कतेक बजे होही?’ मुकुल असकटा के पूछिस। आसेला रोज के खेलई-मेंछरई सुरता आवत राहय। बांटी, भांवरा, गिल्ली डंडा, कुर्रू, बोईर, मोकइया, आमा, अमली, चिरईजाम, मुनिया संग इंतरई सब उफनावत राहय।
‘सरग लोख म सम्मे के आरो-जोखानी राहय हुजूर…’
‘त अब मेंहर काय करंव?’ मुकुल के अंतर हुदेसा मारिस। ‘इहां कोनो कांहीं बुता काम नी करंय मालिक’ चारों देवदूत संघरा किहिन।
‘सरग लोख के दूसर मनखे मन सन मिल सकथौं का?’
‘नीही दऊ ओमन तो दूसर खुंदा (ग्रह) म रहिथें।’
सुन के मुकुल के देहें घुरघुरागे। मन खदमदागे। एके झक परे-परे एके बरन के खवई-सुतई मं हात-गोड़ सोर लो लागत राहय। अइसे तइसे चार दिन नहकईस ताहन पूछथे- ‘मोर दई-ददा संगी संगवारी सन कब मिलहूं?’
‘तोर दई ला छब्बीस बच्छर अऊ तोर ददा ला बीस बच्छर अगोरे लागही मालिक। ऊंकर उम्मर ओतके बांचे हे। जीयत ले इहां नी आ सकंय।’
‘अभी वो मुनिया अभी काय करत होही?’ मुकुल सुरर के पूछथे।
‘अभी तो बपरी हर तोर मरे के सोग म रोवत ललात हावय। थोरिक दिन बीते ले भुला जाही अऊ कोनो फरजन्ट छोकरा सन बिहा करके कमाही-खाही का करही बपरी हर…’ देवदूत नौकर बतईस।
मुकुल के जीव फनफनागे। अल्थी-कल्थी लेवत, सोचिस। अलकरहा फांदा म फंदागेव रे बबा। न मुनिया संग मेंछरई न दई -ददा के दुलार। ये सरग लोक घला भुगतउल हे। ओला लागिस कुछ बुता करतेंव, नांव कमातेंव, पढ़-गुन के हुसियार बनतेंव। वोहा देवदूत ला कथे-‘मोला लागथे जिनगीच हर बने रिहिसे।’
‘जिनगी बने नोहय मालिक। उहां पढ़े ल लागथे। बुता काम करे लागथे। जेती देख ले हांव-हांव, कांव-कांव’ देवदूत बने सरेरत किहिस।
‘इहां परे रेहे के सेती तो बुता करई बने हे, को जनी कतेक दिन परे रहूं।’
‘कतेक दिन के थेमा नईये मालिक।’
‘थेमा नइये?’ मुकुल कपसगीस- ‘तेकर ले तो जाहरा-महुरा खा लेहूं।’
‘मरे मनखे फेर नी मर सकय मालिक’ नौकर बतईस मुकुल चुरमुरागे।
सात दिन बीतत ले मुकुल के जीव बिट्टागे। ताहन एक झिक नावां नौकर आईस अऊ मूंड़ नवा के किहिस- ‘भारी गलती होगे मुकुल राजा, कोनो दूसर के जगा तोला ले आनेन। छिमा देहू, तैं मरे नई हस। तोला सरग लोक छोड़े बर परही।’
‘मय जीयंत हौं?’ मुकुल फरनाय कस पूछिस।
‘हां महराज! तैं जीयंत हावस। मैं तोला धरती म छोड़ आहूं।’
मुकुल के आंखी म पट्टी बांधे गीस। अलकरहा आवाज बगरावत घर के आजू-बाजू किंदार के परिवार बीच खड़ा करे गीस। पट्टी छोरिन मुकुल मगन हो सबे सन मिलिस जिसने केऊ बच्छर पाछू आय हे। हांसी-खुसी जिइन-खाईन। दिन बादर अईस ताहन मुकुल मुनिया के बिहाव होईस। नंगत बरिस कमईन-खईन। वो सरग सुख के गोठ ला अपन लोग लइका, नाती-नतुरा ला ऊसर-पुसर के बतावंय अऊ काहंय- ‘कोन जानथे, सरग सुख कइसे होथे। निमान धरम के कमई-खवई हर आरूग सरग सुख होथे।’
किसान दीवान
झलप चौक, बागबाहरा
जिला-महासमुन्द
आरंभ में पढ़ें : –
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 2
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 3
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 4
अज कुछ भी समझ नही आया। धन्यवाद।
बहुत अच्छी प्रस्तुति .आभार