समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तो वैदिक साहित्य भी श्रुति परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की भाषा में रची गई थी। श्रुति परंपरा के वे साहित्य, जो लोक-भाषा में रचे गये थे, लिपिबद्ध नहीं हो सके, परंतु लोक-स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोक मानस में गंगा की पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोक मानस पर राज करने वाले वाचिक परंपरा की इस साहित्य का अभिप्राय निश्चित ही, और अविवादित रूप से, लोक-साहित्य ही हो सकता है।
लोक जीवन में लोक-साहित्य की परंपरा केवल मन बहलाव, मनोरंजन अथवा समय बिताने का साधन नहीं है; इसमें लोक-जीवन के सुख-दुख, मया-पिरीत, रहन-सहन, संस्कृति, लोक-व्यवहार, तीज-त्यौहार, खेती-किसानी, आदि की मार्मिक और निःश्छल अभिव्यक्ति होती है। इसमें प्रकृति के रहस्यों के प्रति लोक की अवधारण और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके सहज संघर्षों का विवरण; नीति-अनीति का अनुभवजन्य तथ्यपरक अन्वेशण और लोक-ज्ञान का अक्षय कोश निहित होता है। लोक-साहित्य में लोक-स्वप्न, लोक-इच्छा और लोक-आकांक्षा की स्पष्ट झलक होती है। नीति, शिक्षा और ज्ञान से संपृक्त लोक-साहित्य लोक-शिक्षण की पाठशाला भी होती है। यह श्रमजीवी समाज के लिए शोषण और श्रम-जन्य पीड़ाओं के परिहार का साधन है। यह लिंग, वर्ग, वर्ण और जाति की पृष्ठभूमि पर अनीति पूर्वक रची गई सामाजिक संरचना की अमानुषिक परंपरा के दंश को अभिव्यक्त करने की, इस परंपरा के मूल में निहित अन्याय के प्रति विरोध जताने की शिष्ट और सामूहिक लोकविधि भी है। जीवन यदि दुःख, पीड़ा और संघर्षों से भरा हुआ है तो लोक-साहित्य इन दुःखों, पीड़ाओं और संघर्षों के बीच सुख का, उल्लास का और खुशियों का क्षणिक संसार रचने का सामूहिक उपक्रम है। लोक-साहित्य सुकोमल मानवीय भावनाओं की अलिखित मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है, जिसमें कल्पना की ऊँची उड़ानें तो होती है, चमत्कृत कर देने वाली फंतासी भी होती है।
लोक-साहित्य मानव सभ्यता की सहचर है। इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगी, यह अनुमान और अनुसंधान का विषय है, परंतु एक बात तय है कि इसकी उत्पत्ति और विकास उतना ही प्राकृतिक, सहज, और अनऔपचारिक है जितना कि मानवीय सभ्यता की उत्पत्ति और विकास। लोक-कथाएँ, लोक-गाथाएँ, लोक-गीत तथा लोकोक्तियाँ, लोक-साहित्य के विभिन्न रूप हैं। लोक-साहित्य में लोक द्वारा स्वीकार्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों का, पौराणिक पात्रों सहित ऐतिहासिक लोक-नायकों के अदम्य साहस, शौर्य और धीरोदात्त चरित्र का, अद्भुत लोकीकरण भी किया गया है। शिष्ट साहित्य का लोकसाहित्य में यह संक्रमण सहज और लोक ईच्छा के अनुरूप ही होता है। लोक साहित्य का नायक आवश्यक नहीं कि मानव ही हो; इसका नायक कोई मानवेत्तर प्राणी भी हो सकता है।
लोक-कथाओं की उत्पत्ति, उद्देश्य और अभिप्रायों को समझने के लिए यहाँ पर कुछ लोक-कथाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। आदिवासी अंचल में प्रचलित इस लोककथा की पृष्ठभूमि पर गौर करें –
चिंया अउ साँप
जंगल म बर रुख के खोड़रा म एक ठन सुवा रहय। एक दिन वो ह गार पारिस। गार ल रोज सेवय। एक दिन वोमा ले ननाचुक चिंया निकलिस। सुवा ह चारा लाय बर जंगल कोती गे रहय। एक ठन साँप ह चिंया ल देख डरिस। चिंया तीर आ के कहिथे – ’’मोला गजब भूख लागे हे, मंय ह तोला खाहूँ।’’
चियां ह सोंचिस, अब तो मोर परान ह नइ बांचे। मोर मदद करइया घला कोनों नइ हें। ताकत म तो येकर संग नइ सक सकंव, अक्कल लगा के देखे जाय।
चिंया ह कहिथे – ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव नाग देवता; तोर पेट ह नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’
साँप ल चिंया के बात ह जंच गे। वो ह वोकर बात ल मान तो लिस अउ वो दिन वोला छोड़ तो दिस फेर लालच के मारे वो ह रोज चिंया तीर आय अउ खाय बर मुँहू लमाय। चिंया ह रोजे वोला विहिच बात ल कहय – ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव; तोर पेट नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’
अइसने करत दिन बीतत गिस। धीरे-धीरे चिंया के डेना मन उड़े के लाइक हो गे।
एक दिन साँप ह कहिथे – ’’अब तो तंय बड़े हो गे हस। आज तोला खा के रहूँ।’’
चिंया ह किहिस – ’’खाबे ते खा ले।’’ अउ फुर्र ले उड़ गे।
साँप ह देखते रहिगे।
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शिल्प, विषय, उद्देश्य और लोकसंम्पृक्तता की दृष्टि से छोटी सी यह लोककथा किसी भी शिष्ट कथा की तुलना में अधिक प्रभावोत्पादक और चमत्कृत कर देने वाली है। इस लोककथा में लोककथा के अभिप्रायों और संदर्भों का सूक्ष्मावलोकन करने पर अनेक प्रश्न पैदा होते है और इन्हीं अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर में कई अनसुलझे तथ्यों का खुलासा भी स्वमेव हो जाता है।
इस लोककथा में निहित निम्न बातें ध्यातव्य हैं –
1. इस लोककथा का नायक एक सद्यजात चूजा है जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली हैं। यहाँ पर नायक कोई धीरोदात्त मानव चरित्र नहीं है।
2. इस लोककथा का प्रतिनायक भी मानवेत्तर चरित्र है लेकिन वह नायक की तुलना में असीम शक्तिशाली है।
3. इस लोककथा में वर्णित घटना से पृथ्वी पर जैव विकास से संबंधित डार्विन के प्रसिद्ध सिद्धांत ’ओरजिन आफ द स्पीसीज बाई द मीन्स आफ नेचुरल सलेक्सन’ की व्याख्या भी की जा सकती है। ध्यातव्य है कि इस लोककथा का सृजन डार्विन के विकासवाद के अस्तित्व में आने से हजारों साल पहले ही हो चुकी होगी।
4. इस लोककथा में वर्णित घटना प्रकृति के जीवन संघर्ष की निर्मम सच्चाई को उजागर करती है। हर निर्बल प्राणी किसी सबल प्राणी का आहार बन जाता है। यह न सिर्फ प्रकृति का नियम है अपितु प्रकृति द्वारा तय किया गया खाद्य श्रृँखला भी है।
5. प्रकृति में जीवन संघर्ष की लड़ाई प्राणी को अकेले और स्वयं लड़ना पड़ता है।
6. जीवन संघर्ष की लड़ाई में शारीर बल की तुलना में बुद्धिबल अधिक उपयोगी है।
7. विपत्ति का मुकाबला डर कर नहीं, हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ करना चाहिये।
8. जीत का कोई विकल्प नहीं होता। दुनिया विजेता का यशोगान करती है। इतिहास विजेता का पक्ष लेता है। विजेता दुनिया के सारे सद्गुणों का धारक और पालक मान लिया जाता है।
9. दुनिया का सारा ऐश्वर्य, स्वर्ग-नर्क, धर्म और दर्शन जीतने वालों और जीने वालों के लिए है। जान है तो जहान है। अतः साम, दाम, दण्ड और भेद किसी भी नीति का अनुशरण करके जीतना और प्राणों की रक्षा करना ही सर्वोपरि है।
इस लोककथा से कुछ सहज-स्वाभाविक प्रश्न और उन प्रश्नों के उत्तर भी छनकर आते है, जो इस प्रकार हैं –
1. ऐसे सार्थक और प्रेरणादायी कहानी के सृजन की प्रेरणा लोक को किस प्राकृतिक घटना से मिली होगी?
कथासर्जक ने अवश्य ही किसी निरीह चूजे को, किसी शक्तिशाली साँप का निवाला बनाते और अपनी प्राण रक्षा हेतु तड़पते हुए देखा होगा। इस धरती का हर प्राणी हर क्षण प्रकृति के साथ जीवन संघर्ष की चुनौतियों से गुजर रहा होता है। इस लोककथा का सर्जक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। उसने साँप की जगह नित्यप्रति उपस्थित प्राकृतिक आपदाओं को, प्रकृति की असीम शक्तियों को तथा प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए स्वयं को, चूजे की जगह कल्पित किया होगा और परिणाम में इस प्रेरणादायी लोककथा का सृजन हुआ होगा।
2. विभिन्न लोक समाज में प्रचलित लोककथाओं की विषयवस्तु का प्रेरणा-स्रोत क्या हैं?
जाहिर है, लोककथा की विषयवस्तु अपने पर्यावरण से ही प्रेरित होती है। यही वजह है कि वनवासियों में प्रचलित अधिकांश लोककथाओं का नायक कोई मानवेत्तर प्राणी होता है। वहीं राजसत्ता द्वारा शासित लोक की लोककथाओं का नायक कोई राजा, राजकुमार अथवा राजकुमारी होती है। मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का दंश झेलने वाले लोक की लोककथाओं में इस व्यवस्था से प्रेरित शोषण के विरूद्ध प्रतिकार के प्रतीकात्मक स्वर सुनाई देते हैं। पुरूष प्रधान समाज में नारियों की स्थिति सदा ही करुणाजनक रही है। अतः नारी चरित्र प्रधान लोककथाओं में (अन्य लोक साहित्य में भी) नारी मन की अभिव्यक्ति और उनकी वेदनाओं का वर्णन प्रमुख होता है। आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक शोषण से शोषित लोक की कथाओं में शोषण तथा शोषक वर्ग के प्रति कलात्मक रूप में प्रतिकार के स्वर मुखर होते है।
3. लोककथा-सर्जक को क्या अशिक्षित मान लिया जाय?
लोककथा-सर्जक, आधुनिक संदर्भों में, अक्षर-ज्ञान से वंचित होने के कारण, जाहिर तौर पर अशिक्षित हो सकता है। परंतु पारंपरिक अर्थों में न तो वह अशिक्षत होता है और न ही अज्ञानी होता है। उसकी शिक्षा प्रकृति की पाठशाला में संपन्न होती है। लोककथा-सर्जक प्राकृतिक कार्यव्यवहार रूपी विशाल फलक वाली खुली किताब का जितना विशद् अध्ययन किया होता है, विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में वह सब संभव नहीं है। धर्म, दर्शन और नीतिशास्त्र, सबका उसे ज्ञान होता है।
धर्मोपदेशकों और धार्मिक आख्यानककारों द्वारा विभिन्न अवसरों पर, विभिन्न संदर्भों में अक्सर एक बोध कथा कही जाती है जो इस प्रकार है –
चार वेद, छः शास्त्र, अउ अठारहों पुरान के जानने वाला एक झन महापंडित रिहिस। वोला अपन पंडिताई के बड़ा घमंड रहय। पढ़े-लिखे आदमी ल अपन विद्या के घमंड होइच् जाथे, अनपढ ह का के घमंड करही? अब ये दुनों म कोन ल ज्ञानी कहिबे अउ कोन ल मूरख कहिबे? पढ़े-लिखे घमंडी ल कि सीधा-सादा, विनम्र अनपढ़ ल?
एक दिन वो महापंडित ह अपन खांसर भर पोथी-पुरान संग डोंगा म नदिया ल पार करत रहय। डोंगहार ल वो ह पूछथे – ’’तंय ह कुछू पढ़े-लिखे हस जी? वेद-शास्त्र के, धरम-करम के, कुछू बात ल जानथस?’’
डोंगहार ह कहिथे – ’’कुछू नइ पढ़े हंव महराज? धरम कहव कि करम कहव, ये डोंगा अउ ये नदिया के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव। बस इहिच् ह मोर पोथी-पुरान आय।’’
महापंडित – ’’अरे मूरख! तब तो तोर आधा जिंदगी ह बेकार हो गे।’’
डोंगहार ह भला का कहितिस?
डोंगा ह ठंउका बीच धार म पहुँचिस हे अउ अगास म गरजना-चमकना शुरू हो गे। भयंकर बड़ोरा चले लगिस। सूपा-धार कस रझरिझ-रझरिझ पानी गिरे लगिस। डोंगा ह बूड़े लागिस। डोंगहार ह महापंडित ल पूछथे – ’’तंउरे बर सीखे हव कि नहीं महराज? डोंगा ह तो बस अबक-तबक डूबनेच् वाला हे।’’
सामने म मौत ल खड़े देख के महापंडित ह लदलिद-लदलिद काँपत रहय; कहिथे – ’’पोथी-पुरान के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव भइया।’’
डोंगहार ह कहिथे – ’’तब तो तोर पूरा जिनगी ह बेकार हो गे महराज।’’
’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय।’
पंण्डित और पोथियों के ज्ञान को अव्यवहारिक और असार सिद्ध करते हुए, प्रेम की सार्थकता को प्रतिपादित करने वाली कबीर की इस ऊक्ति का समर्थन करती यह कथा यद्यपि शिष्ट समाज में, शिष्ट साहित्य में समादृत है, पर इसकी विषयवस्तु, शिल्प और अभिप्रायों पर गौर करें तो वास्तव में यह लोककथा ही है। पोथी-पुराणजीवी पंडित वर्ग स्वयं अपना उपहास क्यों करेगा? सत्य को अनावृत्त करने वाली यह कथा निश्चित ही लोक-सृजित लोककथा ही है। यह तो इस लोककथा में निहित जीवन-दर्शन की सच्चाई की ताकत है, जिसने पंडित वर्ग में अपनी सार्थकता सिद्ध करते हुए स्वयं स्वीकार्य हुआ। यदि विभिन्न पौराणिक संदर्भों और पात्रों ने लोक साहित्य में दखल दिया है, तो पौराणिक और शिष्ट साहित्य में भी लोक साहित्य ने अपनी पैठ बनाई है। उपर्युक्त लोककथा इस बात को प्रमाणित करता है।
अपने पूर्वजों द्वारा संचित धन-संपति और जमीन-जायदाद को, जो कि धूप-छाँव की तरह आनी-जानी होती हैं, हम सहज ही स्वस्फूर्त और यत्नपूर्वक सहेजकर रखते हैं। लोककथाओं सहित संपूर्ण लोकसाहित्य भी हमारे पूवर्जों द्वारा संचित; ज्ञान, शिक्षा, नीति और दर्शन का अनमोल और अक्षय-कोश है। कंप्यूटर और इंटरनेट की जादुई दुनिया से सम्मोहित वर्तमान पीढ़ी स्वयं को इस अनमोल ज्ञान से वंचित न रखें।
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कुबेर
राजनांदगाँव
मो. 9407685557