काला कहि अब संत रे, आसा गे सब टूट ।
ढोंगी ढ़ोंगी साधु हे, धरम करम के लूट ।।
धरम करम के लूट, लूट गे राम कबीरा ।
ढ़ोंगी मन के खेल, देख होवत हे पीरा ।।
जानी कइसे संत, लगे अक्कल मा ताला ।
चाल ढाल हे एक, संत कहि अब हम काला ।।
होथे कइसे संत हा, हमला कोन बताय ।
रूखवा डारा नाच के, संत ला जिबराय ।।
संत ला जिबराय, फूल फर डारा लहसे ।
दीया के अंजोर, भेद खोलय गा बिहसे ।।
कह ‘रमेष‘ समझाय, जेन सुख शांति ल बोथे ।
पर बर जिथे ग जेन, संत ओही हा होथे ।
–रमेश कुमार सिंह चौहान
आप के लिखे कुण्डलिया समसामयिक हे। कुण्डलिया ल पढ़के
जउन आनंद मिलथे उसन दूसरा में नइ मिले।
धन्यवाद भाई चंद्राकरजी