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कविता

दमांद बाबू : कबिता

मही म रांधे हे, नोनी भुंज बघार के।
ले-ले सुवाद, ‘दमांद बाबू’ भाजी बोहार के।
डारे हे नोनी मिरचा के फोरन।
कब चुरही हम्मन अगोरन।
बघारे हे नोनी गोंदली डार के।
ले ले…

चेतावय दाई, बिगरे झन नोनी।
माहंगी के भाजी, नई देइस पुरउनी।
रांधबे नोनी सुग्घर झाड़-निमार के।
ले-ले…

मही-मही कही के, दाई पारे गोहार गा।
गजब मिठाय हे भाजी बोहार गा।
मत पूछव खरखरइ परसी दुआर के।
ले-ले…

दमांद ल पसंद हे बोहार भाजी।
‘बिदुर’ घर खाइस ‘भगवान’ भाजी।
‘मया के भाजी’ खाले चटकार के
ले-ले…

हांसत खलखलावत बिते तुंहर जिनगानी।
मिलत राहय सबर दिन, एक लोटा पानी।
बइठ जा ‘दमांद बाबू’ पलटी मार के।
ले-ले…

डॉ. राघवेन्द्र कुमार ‘राज’
जेवरा-सिरसा

आरंभ म पढ़व : –
एक थी नारायणी कहानी संग्रह
लेह अब यादें ही शेष हैं

3 replies on “दमांद बाबू : कबिता”

ਆੜ-ਬੜ ਦਿਨ ਹੋਗੇ ਬੋਹਾਰ ਭਾਜੀ ਖਾਏ.
ਬਣੇ ਸੁਰਤਾ ਦੇਵਾ ਦੇ ਹਾਸ. ਦਾਮੰਦ ਬਾਬੂ ਬਣੇ ੧੮ ਬਾਰਿਸ ਹੋਗੇ.ਅਬ ਸਾਸੁਰਾਰੋ ਮੈ ਘਾਲਾ ਕੋਣ ਖਾਵਹਿ.

ਜੋਹਾਰ ਲੈ

अड़बड़ दिन होगे बोहार भाजी खाए, बने सुरता दे हस। दमांद बाबु बने 18बरिस होगे। अब ससुरारे मे घला कोन रांधही। मांहगी के जमाना हे।:)

जोहार ले

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