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कविता

रेमटा टुरा – २ चिपरिन के मही

ममा गाँव मा रहे एक झन
ठेठ्वारिन दाई अंकलहिन्
बेलमार के मइके ओखर
बढौवल नाम बेलमरहिन्

ओखर घर मा गैया भैसी
रहे कोठार बियारा
खोरबाहरा मंगलू चरवाहा
अऊ , पहटिया मन करे तियारा

किसम -किसम के जेवर गहना
पहिरे रहे लदलदावै
आनी-बानी के चीज़-बस
दूध-दही के नदी बोहावै

चिपरिन डोकरी सास ओखर
मही बेचे बार जावै
मही ले वो – मही ले वो
गली गली चिल्लावै

जेठू के रेमटा टूर हा
चिपरिन ला रोज़ बलावै
अपन दाई मेर जिद्दी करके
रोजेच मही लेवावै

ठंडा दिन मा रमकेलिया साग
अम्टाहा मा रंधवावै
जुर – सर्दी धरे रहे ओला
नाक हा गजब बोहावै

एक दिन समधी पारा ले
आये रहे सगा पहुना
रेम्टा के दाई चौका मा जाके
बनावन लगिस जेवना

मही अऊ दूध के लोटा गंजी
संगे संग आला मा रहे माढ़े
चाहा बनाईस , दूध के धोखा मा
मही ला ओमा डारे

समधी मन हा चाय ला पीके
गजब रहे ओकियावै
वही बखत ले रेम्टा के दाई
चिपरिन ला देखे खिसयावै

श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर , दुर्ग

आरंभ म पढ़व –
सुआ गीत : नारी हृदय की धड़कन
अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जानते तो …

One reply on “रेमटा टुरा – २ चिपरिन के मही”

ग्रामीण परिवेश का सुन्दर चित्रण ! सम्पन्न परिवार होने के बावजूद मही बेचने के परंपरागत व्यवसाय की निरंतरता ,छत्तीसगढ़ के गावों में “बढौवल-नाम” की परंपरा ,ठेठ देहाती नामों का प्रयोग,बाल-हठ पर माँ की विवशता,पहुना आने पर आनंद-अतिरेक में गलती का होना और अपनी गलती की झल्लाहट को किसी अन्य पर उतरने का मनोविज्ञान.इन सबके अतिरिक्त विशुद्ध ,सहज हास्य !!!
छत्तीसगढ़ी में विशुद्ध हास्य यदाकदा ही पढ़ने व सुनने मिलता है.बधाई.

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