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कविता

बेटी के सुरता

सोचथंव जब मन म, त ये आंखी
भर जाथे।
तब मोला, वो बेटी के
सुरता आथे।।
का पानी, का झड़ी,बारहों महिना
करथे काम।
का चइत, का बइसाख, तभो ले नइ
लागय घाम।
धर के कटोरा, जब गली-गली भीख
मांगथे।
तब मोला,वो बेटी के सुरता
आथे।।
बेटा ह पछवागे, बेटी ह अघवागे।
देस के रक्छा करे बर, बेटी आघु आगे।
नीयत के खोटा दरिंदा मन, जब
वोला सिकार बनाथे।
तब मोला, वो बेटी के सुरता
आथे।।
घर दुवार छोड़, जब बेटी जाथे
ससुरार।
बस एक दहेज खातिर, बेटी ल देथे
मार।
तब बेटी के आत्मा, कलप-कलप
के रोथे।
तब मोला, वो बेटी के सुरता
आथे।।
अब तो जागव रे मनखे,बेटी एक
नही, दू घर के लाज ये।
बेटी ह तो संगी, तोर-मोर अंतस के
आवाज़ ये।
झन भुलव मानवता ल, बेटी घर के
सिंगार होथे।
तब मोला, वो बेटी के सुरता आथे।।

केशव पाल
मढ़ी (बंजारी) तिल्दा नेवरा
सारागांव,रायपुर (छ.ग.)
9165973868
9644363694