Categories
कविता

भुर्री तापत हे

बाढहे हाबे जाड़ ह, सब झन भुररी तापत हे।
कतको ओढ ले साल सेटर, तभो ले हाथ कांपत हे।
सरसर सरसर हावा चलत, देंहें घुरघुरावत हे।
नाक कान बोजा गेहे, कान सनसनावत हे।
पानी होगे करा संगी, हाथ झनझनावत हे।
कांपत हाबे लइका ह, दांत कनकनावत हे।
गोरसी तीर में बइठे बबा, हाथ गोड़ लमावत हे।
साल ओढके डोकरी दाई, चाहा ल डबकावत हे।
गरम गरम पानी में, कका ह नहावत हे।
गरमे गरम चीला ल, काकी ह बनावत हे।
थरमा मीटर में घेरी बेरी, डिगरी ल नापत हे।
बाढहे हाबे जाड़ ह, सब झन भुररी तापत हे।

महेन्द्र देवांगन “माटी”
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला – कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”ये रचना ला सुनव”]