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छत्तीसगढ़ी कविता मा लोक जागरन के सुर

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के महाधिवेशन दिनाँक 23/24 फरवरी 2013 म पढ़े गए आलेख
डॉ.दादूलाल जोशी ‘फरहद’

Dadulal-Joshiसाहित्त के बिसय मा जुन्ना गियानी लेखक मन हा अघात काम करें हें । साहित्त के कतना किसिम के अंग होथे ,उंकर सरूप अउ बनावट कइसे रहिथे ? उनला रचे -बनाये के का नियम होथे ? ये सब्बो के बारे मा फरिहा-फरिहा के गोठ-बात लिखे गे हे। साहित्त के लिखे -पढ़े के का फायदा हे , तउनो ला गियानी मन बताये हें। उंकर बिचार मा साहित्त के लिखे -पढ़े के खासगी नफा , आनन्द के मिलना हरे ।आनन्द पाये के खातिर लोगन हा वोला लिखथे अउ पढ़थें। तेकरे सेती संस्कृत के कवि हा लिखे हेः-
काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
माने समझदार मनखे के टेम हा साहित्त के चरचा करके आनन्द पाये मा गुजरथे ।बने बात लिखे गेहे। फेर साहित्त के मकसद खाली आनन्द पाना या मनोरंजन करना भर नई रहि गे हे। येकर दूसर किसिम के मकसद, जन-जन मा जागरिती लाना, वो मन ला शिक्षित करना, सचेत करना अउ जिनगी मा आये हर किसिम के रोड़ा संग जुझ के दुःख पीरा ला दूरिहा करे के उदीम करना घलो आय ।
आज हम जउन गोठ-बात करना चाहत हन वोकर खास चीज इही हरे के छत्तीसगढ़ी के रचनाकार मन के रचना मा जन जागरन के सुर समाये हे के नहीं तउने के उपर बिचार करना हे। छत्तीसगढ़ी मा भाखा लेखा कम हे, माने निबन्ध, कहानी, नाटक, संसमरन, आत्मकथा अउ उपन्यास के डाहर थोरिक – थोरिक काम होय हे। येकर उलट कविता मा काम नंगत के होय हे। त जउन काम नंगत के होय हे, तउने ला बने खोधिया के वोकर भीतरी मा लुकाय मोती ला निकालना जरूरी हो जाथे।
जब हम छत्तीसगढ़ी कविता मा लोक जागरन के सुर ला छांटे-निमारे के उदीम करत हन तब हमर धियान हा समे के दू जूग डाहर पहिली जाथे। पहिली जुग मा – देश के आजादी के पहिली बेरा ला राखथन अउ दूसर जूग मा आजादी केबाद के बेरा ला लेथन। आजादी के पहिली छत्तीसगढ़ी के जउन कवि मनके सोर हा अघात उड़े रिहिस हे, उनमा पं. सुन्दरलाल शर्मा के नाव पहिली ठउर मा रिहिस हे। वोकर संगे-संग जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’, कपिलनाथ मिश्र अउ सुकलाल प्रसाद पाण्डे मन घलो छत्तीसगढ़ी मा काव्य रचना करत रिहीन। उंकर लिखे के सबले बड़का लाभ इही होइस के छत्तीसगढ़ी मा लिख – पढ़े के चलन चालू होइस। आजादी के पहिली के कवि मन मा गिरिवरदास वैष्णढ़व अउ कुंजबिहारीलाल चौबे के कविता मा गजब के ताप हे। ये मन सोझ-सोझ जनता के संग गोठ-बात करंय। अंग्रेज मन के खिलाफ कविता लिखना हा अड़बड़ हिम्मत के बूता रिहिस हे। ये दूनों कवि मन के कविता मा लोक जागरन के सुर सफा-सफा निकल के आये हे। गिरिवरदास वैष्णव के बानगी एदइसन हे-
मजदूर किसान अभी भारत के
एक संगठन नई करिहौ ।
थोरिक दिन मा देखत रहिहौ ,
बिन मौत के तुम मरिहौ ।।
राज करइया राजा हर तो
अब व्यापार करे लागिस ।
सब चीज ला लूटव -तीरव ,
अतके ध्यान धरे लागिस।।
इहां वैष्णव जी के मकसद जनता ला खाली आनन्द देना भर नई हे। भलूक अंग्रेज मन ला भगाये बर एक्का होके संगठन बनाये बर दिसा देना घलो हे। कुंज बिहारी लाल चौबे के सुर मा तो नंगत के झार हे। अंग्रेज मन बर तो कलबलाये के लईक रिहिस हे। फेर देश के जनता ला सच्चाई देखाये बर सुरूज के अंजोर बरोबर दगदग ले उज्जर रिहिस हे। वोमन लिखे हें –
ऑंखी मा हमर धुर्रा झोंक दिये,
मुड़ी मा थोप दिये मोहनी ।
अरे बैरी जानेन तोला हितवा ,
गंवायेन हम दूनों ,दूध -दोहनी ।।
पीठ ला नहीं तैंहर पेट ला मारके ,
करे जी पहिली बोहनी ।
फेर हाड़ा गोड़ा ला हमर टोरे,
फोरे हमर माड़ी कोहनी ।
गरीब मन के हित करत हौं कहिके,
दुनियॉं मा पीटे ढिंढोरा ।
तैं हर ठग डारे हमला रे गोरा ।।
साम्राज्यवादी अंग्रेज मन के राज हा बहुत बड़का रिहिस हे। वो जमाना मा कहे जात रिहिस के – अंग्रेज मन के राज मा सुरूज कभू नई बूड़े । अतका बड़का ताकत वाले सरकार ला ललकारे के काम अपन कविता मा छत्तीसगढ़िया कवि कुंजबिहारीलाल चौबे हा करके देखा दिस। त सोंचे के बात हरे के – ओकर हिरदे मा अतका रीस कहां ले आइस ? वोहर आइस जनता के हालत ला देख-समझ के । चौबे जी हर गरीब किसान के जिनगी ला बहुते नजीक ले देखे रहिन हें। छत्तीसगढ़ के किसान के हाल ला वोमन येदइसन ढंग ले बरनन करे रिहिन हें –
पहिरे बर दू बीता के पागी जी,
पीये ला चोंगी, धरे ला आगी जी ।
खाये ला बासी, पिये ला पेज पसिया ।
करे बर दिन -रात खेत मा तपसिया ।।
साधू जोगी ले बढ़के दरजा हे हमर,
चल मोर भइया बियासी के नांगर ।।
ये कविता मा कवि हा कहिथे – ‘‘ साधू जोगी ले बढ़के दरजा हे हमर ‘‘ । ये लाइन मा कवि के हिरदे के सत् अउ काव्य सौंदर्य जगजग ले दिखथे । वो मन चाहतीन त अइसन घलों लिख सकत रिहीन हें- ‘‘ साधू जोगी ले बढ़के दरजा हे उंकर ‘‘ फेर अइसन नई लिखिन , काबर के – वो मन किसान के जिनगी के संग अपन आप ला जोड़के देखिन । तेकरे सेती उंकर रचना मा जान आगे हे।
सन उन्नीस सौ सैंतालीस मा देश आजाद होगे । जम्मो राजकाज ला इंहां के लोगन ला संउपके अंग्रेज मन अपन देश चल दीन । भारत देश मा देशवासी मन के राज आगे । पंचवर्शीय योजना लागू होइस । सांसद अउ विधायक चुने के चलन सुरू होइस । येकरे संगेसंग सन् पचास के बाद के नवा पीढ़ी छत्तीसगढ़ मा धीर-धीरे संग्यान होय लागीस । चार ठन पंचवर्षीय योजना के सिरावत-सिरावत वो पीढ़ी गबरू जवान होगे । वोहर अपन आजू बाजू देखे लागिस ।अपन ठउर ठिकाना ला देखे लागीस । आंखी मा खुशहाल छत्तीसगढ़ के सपना धरे-धरे आगू डाहर रेंगे लागीस । सन उन्नीस सौ सत्तर के आते आत वोकर आंखी के जम्मो सपना हा कूटीकूटी होके एती वोती बगरगे । वो पीढ़ी हा देखिस के – देश दुनियॉं मा छत्तीसगढ़ के लोगन के बारे मा, बहु बेटी मन के बारे मा, रहन-सहन, खान-पान, बोली -बतरस के बारे मा किसिम-किसिम के लबारी धारना बनाय गेहे। ठट्ठा दिल्लगी करे जात हे। उही बेरा मा बिमल मित्र के सुरसतिया उपन्यास साप्ताहिक हिन्दुस्तान मा छपे लागिस, जउन मा इंहां के नारी ला निच्चट गये गुजरे बताये गे रिहिस हे। ये सब ला देख के वो पीढ़ी तलमलागे । अपन सोसन अउ अपमान ल खतम करे खातिर उंकर सुर बदलगे। वोमन फेर कुंजबिहारीलाल चौबे के कविता ला सुरता करिन – ‘पिये ला चोंगी, धरे ला आगी जी ‘। वोमन ल खियाल आइस के हमर जुन्ना पीढ़ी के लोगन मन भले बासी खावंय, पेज पसिया पियंय, दिन रात खेत मा तपसिया करंय, चोंगी पियंय, फेर उंकर हाथ मा आगी जरूर रहाय । उही आगी ला सुलगा के नवा पीढ़ी कविता लिखना शुरू करिस, त बानगी येदइसन होइस –
भूख मरत ईमान गली मा मांगत भीख खड़े हे।
बीच शहर बइमान सेठ के भारी महल अड़े हे।
जनता के पइसा मा भइया नेतामन मजा उड़ावैं ।
अफसर पंखा तरी बइठ के दिन भर जीव जुड़ावै।
रामेश्वर वैष्‍णव
कवि हा जनता ला इसारा करत हे के- छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया के नारा सुन के जादा गदगदाव झन।अपन हाल चाल ला आंखी धोके देखव अउ समझौ –
थोरकुन दुभेदिया मनखें घलो हे,
तेखर तुम झन खावव सुती ।
सुन गा मजूर, सुन गा किसान,
तुंहला हुरियावत हे पूंजीपति ।।
मनोहर शर्मा
लोगन ला जगाये खातिर उनला चेताये खातिर छत्तीसगढ़ी कवि तरहा-तरहा के शब्द अउ भाखा ला अपन कविता मा लानथे । वोहा चाहथे के- कइसनों करके मोर छत्तीसगढ़िया भाई बहिनी मन अपन दुख पीरा के सिरतों कारन ला जानय-समझंय, तेकरे सेती कवि हा सोझे-सोझ सवाल घलो पूछे ला धर लेथे । जब सवाल पूछे जाही तब वोकर जुवाब देये के उदीम घलो करे जाही । ये तरहा ले जन-जन हा सब्बो सच्चाई ला जानहीं समझहीं । कवि हा कविता मा सवाल पूछत हे,तेकर सरूप अइसन हे-
मिलाय कोन हे, उज्जर चांउर मा गोटी ।
नंगाय कोन हे, हमर बांटा के रोटी ।
गारथन पसीना हम, दूसर सुख पाथें,
खाये हमरे ला, हमीं ला बिजराथंय,
चानत कोन हे जी करेजा के बोटी ।।
भगवती लाल सेन
सवाल पूछ के जगाना हा झकझोरे बरोबर बूता आय । जउन नई जागय तउन ला आखिर मा हला हला के जगाय बर परथे । एदे कविता मा कवि हा चिरैया के आड़ लेके कतेक सुघ्धर ढंग ले चेतावत हे-
आंखी कहां ? पांखी कहां ?कहां तोर चेत रे,
दाना कहां ? खाना कहां ? थाना होगे खेत रे,
मन अउ परान बांचय , अइसे धर नेत रे,
झन तंय छुरी ले नरी , अपनेच्च रेत रे,
चेत चेत रे चिरइया ,जे हे अभी दीदी भइया,
उही काली झन डारय तोला ताते-तात तेल मा ।।
डॉ. जीवन यदु
अपन हालत ला समझे भर ले अपन दुरदसा के कासरन ला जाने भर ले बात नई बनय । बात तो तब बनहीं जब अपन खराब दसा ले उबरे परयास करे जाही । बिना मिहनत के कारज हा अपनेच्च आप सुफल नई हो सकय । कोनो ला गारी -गुप्तार देये ले अपन दुख पीरा हा खतम नई होवय । येकर बर तो सरलग मिहनत के बाना ला धरे बर परही।कवि हा समझाइस देवत हे, अउ कहत हे –
पहिली करमइता तो बन ।
करतब करके करमइता बन ,
करम के लाहो लेना हे ।
परके खाना चोरी हे जब ,
जाम गे पांखी डेना हे ।।
हिम्मत के कीम्मत कूते बर ,
सूते के साध नकरनाहे ,
येही काम मा जुरमिल के अब ,
एक घंउवा हो परना हे।।
श्यामलाल चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ के असली पहिचान वोकर श्रम संस्कृति के कारन सरी जग मा बने हे। अलाल अउ ठलहा मनखे ला इंहां कभू बने नई कहे जाय । छत्तीसगढ़ मा कोढ़िया अउ कैराहा मनखे के सदा निन्दा होथे। उंकर मान -सनमान नई होवय । मिहनत करइया हा जगजीता बन जाथे । तेकरे सेती कवि हा जम्मो छत्तीसगढ़िया मन ला समझाय बर लिखथे
ठलहा कोनो बइठ न पावैं, सब झन पारौ श्रम के दोहा ।
हमर सांस मा अतका बल हे, पर जाये तो टघले लोहा।।
बेरा पहा न जाय भइया, झन बइठौ जी गोड़ लमाये ।
कतको बूता परे हे, करबो जुरमिल, सकबो तभे कमाये ।।
हरि ठाकुर
कवि हर अतकेच्च कहि के चुप नई बइठय । वोहर आगू डाहर फैसला सुना के कहिथे –
अइसन बेरा उंघावे जोन, उंखर मुंह मा मारो थपरा ।
सजग सचेत रहो सब भाई, टारौ रछ्दा के सब पथरा ।।
हरि ठाकुर जी हा अपन कविता मा सच्चाई ला ठाढ़-ठाढ़ लिखथे । उंकर कहना हे के- ये भुंईंया काकर आय ? ये दुनियॉं के पालन पोसन करइया कोन हरे । येकर जुवाब घलो उहीच्च हा देथे –
जेकर जांगर, तेकर नांगर ,
जेखर नांगर, वोकरे भुईंया ।
अन्न उपजैया मन के बल मा,
चलत हवे सब दिन ये दुनियॉं ।।
हरि ठाकुर जी के ये कविता मा काव्य सौंदर्य देखे ला मिलथे । सुघ्धर ध्वन्यात्मकता के रूप देखे ला मिलथे ।इंहां जांगर, नांगर अउ भुईंया के संगत बइठारे गेहे । ये तीनों छत्तीसगढ़ के परान हरे । ये तीनों नई रहिही त छत्तीसगढ़ घलो नई रहिही। कवि हा धीरज के बात करथे । संस्कृत मा केहे गे हे – चरैवेति, चरैवेति । माने चलत रहव, चलत रहव । रेंगत रहव । दुख सहे के कुव्वत राखौ –
तिपे चाहे भोंभरा, झन बिलमव छांव मा,
जाना हे हमला ते गाँव अभी दुरिहा हे ।।
कतको तुम रेंगव न, रद्दा हा नई सिराय,
कतको आवय पड़ाव, पांव जस नई थिराय ।
तइसे तुम जिनगी मा महिनत संग मत बदौ ,
सुपना झन देख ग छांव अभी दुरिहा हे।।
नारायण लाल परमार
कवि कहिथे – अभीन तो गॉंव अउ छांव दूनों दूरिहा हे। कइसे दूरिहा नई रही ? रेंगइया मन हा तो डगमगाय लागिन अपन चेत बुध ला तो बिसरावत हे। । गुरतुर -गुरतुर ठकुर सुहाती गोठ करे के पहिली अपन डेरी जेवनी डाहर बने हिरक के तो देखो ? उंहां का दसा हे तेला । कवि बतावत हे-
भेदभाव के सेती गाँव बिगड़गे ,
पार लगइया नाव बिगड़गे ,
आपस के बरताव बिगड़गे ,
सुम्मत के सब ठांव बिगड़गे ,
अइसन भेदभाव ला छोड़ के भाई ,
बिगड़त काम ला बनावव जी ,
दुरमत के सब रद्दा ला छोड़व ,
सुम्मत ला अपनावव जी ।।
बिसम्भर यादव ‘मरहा’
कवि कहत हे – सुम्मत के बिना कउनों काम सुफल नई होवय । पहिली सुम्मत बनावव । ये सुम्मत शब्द के भावार्थ बहुत बड़का हे । सुमत माने सुघ्धर बुद्धि । समझदारी के संग सोचे बिचारे के मति । सबके मति सुघ्धर होही त सब झन मा जुड़ाव होही । एकता आही । तभे कारज हा सिद्ध होही । त देरी का बात के हे। चलौ लग जावव बूता मा –
धर ले कुदारी गा किसान ,
आज डिपरा ला खन के डबरा पाट देबो रे ।
उंच नीच के भेद ला मिटायेच्च बर परही ,
चलौ -चलौ बड़े-बड़े ओदराबोन खरही ,
जुरमिल के गरीबहा मन ,
संगे मा होके मगन ,
करपा के भारा -भारा बांट लेबो रे ।।
मुकुंद कौशल
कौशल जी के कहना हे- अमीर गरीब के भेद ला मिटाना जरूरी हे। समाजवाद लाना हे। एकर बर कनिहा बांध के खांध मा खांध जोर के एक संघरा उदीम करना चाही ।एक दूसर के बूता ला सिधोय बर सबे झन हांथ लगावव।?बात अतकेच्च नई हे। हिरदे मा आगी सिपचा के कोन हा मेढ़िया बनही ? माने कोन हा पहिली आगू मा आके सब झन ला हूंत कराही ? काम ला सुरू करेच्च ला परही । तब एक झन खरतरिहा कवि येकर बर तियार होके अपन सुर ला उंच करके जोरलगहा गाथे –
बिपत संग जुझे बर भइया, मंय बाना बांधे हंव,
सरग ला पिरथिवी मा ला देहूं, परन अइसन ठाने हंव,
मोर सुमत के सरग निसैनी, जुरमिल सब्बो चढ़व रे ।
मोर संग चलव रे ।।
लक्ष्मण मस्तूरिहा
सुम्मत के महिमा ला जम्मो छत्तीसगढ़िया कवि मन बताये हे। येकर गुन ला घेरी-बेरी गाये हें। तुलसीदास हा घलो बहुत पहिली ले बता दे हे – जहां सुमति तंह सम्पत्ति नाना । जहां कुमति तंह विपत निदाना ।।
सुम्मत होवत -होवत बीचेच्च मा काबर बिगड़ जाथे ? का कारन ले टूट -फूट हो जाथे ? तउन ला एक झन सियनहा कवि हा बतावत हे। मनखे के अहंकार हा मति ला खराब कर देथे । घमंड हा सबला तिड़ीबीड़ी करके राख देथे । घमंड के घर हा सदा खाली रहिथे । कवि लिखथे –
त फेर का घमंड हम करबो , जानत हन जम्मो मरबो ।
अइंठा गोइठा झन रे भइया , तुंहर नाव के तुम्हीं खेवइया ।।
एती बुद्धि फेरा , ओद बुड़िस बेरा
पंछी चलिस डेरा , दीया बाती हेरा
दार बरी केरा , कुछु पोथी फेरा ,ओदे बुड़िस बेरा ।।
पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’
जिनगी के सबले बड़का सच हरे – जनम अउ मरन । एमा काकरो बस नई चलय । विप्र जी हा जिनगी के सच ला ये कविता मा अघात सुघ्धर ढंग ले गूंथे हे । उंकर कहना हे – घमंड झन कर भाई। येहा सब्बे बुराई के जर हरे । जम्मो पाप के घर हरे । बिनास के डहर हरे । घमंड हा लोगन के सुमत ला बिगाड़े के बूता करथे । तेकरे सेती अपन बुद्धि ला सही ठउर मा लानौं । गियान रूपी दिया ला बारव । नई ते जान लेवव, जुग बुड़े बर जावत हे। विप्र जी के सुर मा सुर मिलाये के काम डॉ. विनयकुमार पाठक हा तुरते कर दिस । उंकर भाव जागीस के – गुरूजी हम अतका हलका फोसवा नई हन , जउन घमंड के तरिया मा बूड़ के मर जाबो ? वोमन लिखिन –
हम पथरा गोटी नोहन ,
पानी म बुड़िच्च जाबो ।
रहिबो जिहां जुरमिल , दसा सुघ्धर बनाबो ।
फेर तेल छींटा कस ,पानी म उफलाबो ।।
डॉ.विनय कुमार पाठक
सुम्मत के कमी ला देख के कवि ला गजब दुख होथे । वोहा चाहथे के – छत्तीसगढ़ मा ठोसलगहा सुम्मत सुलाह बने रहय। येकरे ले सबके भलई हें । तभेच्च तो कवि हा कहत हे-
सुम्मत के तुम गोठ करव ,
अब का रोना ला रोहू जी ?
कइसे पाहू बने फसल ला ,
जब बदरा ला बोहू जी ।।
सोये के रतिहा जम्मो सिरागे ,
जागे के दिन मा का सोहू जी ,
अब तो चेत करव रे भइया ,
नई ते पाछू तुमन रोहू जी ।।
खींच तान मा झन काम बिगाड़व ,
करम के पथरा फोरहू जी ,
नहाहू तुम सुफल के पानी मा ,
आंसू मा काबर मुंह ला धोहू जी ।।
दादूलाल जोशी ‘फरहद’
सुम्मत शब्द ला सुवा बरोबर रटे ले सुम्मत नई आवय । हिरदे मा येकर भाव जगाना जरूरी होथे । तियाग के भाव परोपकार के भाव , अपन ला अपन जाने अउ माने के भाव पैदा करना जरूरी होथे । जेमन मा अइसन भाव उपजथे वो मन अपन समाज अउ देश बर बड़का-बड़का काम करके देखा देथें । लोगन ला उही बड़का काम के रद्दा मा रेंगें के दिसा बता देथें । असनेच्च तियागी अउ दयालू मनखे के सनमान करे जाथे । ये बात ला कवि हा अपन येदे कविता मा ढारे हे –
अपन सुवारथ ल तजदिन ,
परमारथ बर उदीम करिन ,
बिरछा सांही फरिन – फूलिन ,
दूसर खातिर गिरिन -झरिन ,
कभू न जिनकर मन म आइस ,
थोरको अपन -बिरान ।
उंकरे बर सब आदर -सरधा ,
उंकरे बर सनमान ।।
पं. दानेश्वर शर्मा
संस्कृत साहित्त मा गियानी लेखक मन कवि ला प्रजापति माने हें। भगवान बरोबर दरजा देहें। एकर कारन इही हरे के-कवि हा रचना करथे । वोहा नवा जिनिस बनाथे। अपन समाज अउ देश ला खुशहाल बनाये बर सोंचथें ।आशावादी होथें । अवइया सुघ्धर जिनगी उपर उनला पूरा भरोसा रहिथे। हर कवि हा जनता ला जगाय के, चेताय के भाव वाले कविता लिखथे ।उपर डाहर जतका कवि मन के कविता ला लोक जागरन के सुर वाले पांत मा राखे गेहे, तेकर ये मतलब नई हे के – बाकी कवि मन के कविता मा जनजागरन के सुर नई हे।जतका कवि हें, वो सब्बो झनके कविता मा समाज ला जगाये बर अउ सुघ्धर बनाये बर भाव अउ सुर समाये हे।ये नानकुन लेखा जोखा मा जम्मो कवि के रचना ला सामिल नई करे जा सकय ।सब झन के कविता के साखी इंहां देहूं त बड़का पोथी बन जही ।मय हा इंहां इसारा भर करे हंव ये बताय के उदीम करे हंव के – कवि अउ वोकर रचना ला कइसन नजर ले देखे के परयास करना चाही ये तरहा ले समीक्षक मन बिचार करिहीं त नवा बात बाहिर निकल के आही ।

दादूलाल जोशी ‘फरहद’
द्वारा -श्री अजय कुमार बर्मन
वार्ड नं. 24,सरकारी कुआं के पास,
नंदई चौक, राजनांदगाँव 491441
मोबा: 8109383094 / 9691053533

संदर्भ:-
1- छत्तीसगढ़ी भाशा और साहित्य – सं. डॉ.सत्यभामा आडिल
2- अवशेश – कुंजबिहारीलाल चौबे
3- पर्रा भर लाई – श्यामलाल चतुर्वेदी
4- नदिया मरय पियास – भगवतीलाल सेन
5- हमर भुईंया हमर अगास – मुकुंद कौशल
6- हमर अमर तिरंगा – बिशम्भर यादव मरहा
7- अकादसी अउ अनचिन्हार – डॉ.विनयकुमार पाठक
8- सापेक्ष (लोकसाहित्य एवं संस्कृति अंक ) – सं. महावीर अग्रवाल
9- सत्यध्वज अंक 43 – सं. दादूलाल जोशी ‘फरहद’

5 replies on “छत्तीसगढ़ी कविता मा लोक जागरन के सुर”

ये छत्तीसगढ़ी भाखा माँ आप मन के कविता गजब सुग्घर लागिस

दादू भाई ! बढिया लिखे हावस ग , फेर बहिनी मन के कोनो कविता म लोक जागरण के सुर नइ सुनावय तौने हर दुर्भाग्य – पूर्ण ए ग । कब तक तुमन रेवडी ल अकेल्ला – अकेल्ला खावत रइहौ ग ?

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