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कविता

पांच बछरिया गनपति

राजधानी म पइठ के ,
परभावली म बइठ के ।
हमर बर मया बरसाथे ,
हमींच ला अइंठ के ।
रिद्धी सिद्धी पाके ,
मातगे जोगी जति ।
ठेमना गिजगिजहा ,
पांच बछरिया गनपति ।

बड़का बुढ़हा तरिया के ,
करिया भुरवा बेंगवा ।
अनखाहा टरटरहा ,
देखाये सबला ठेंगवा ।
पुरखौती गद्दी म खुसरे खुसरे ,
बना लिन अपन गति ।
अपनेच अपन बर फुरमानुक ,
पांच बछरिया गनपति ।

लोट के , पोट के ,
भोग लगाये वोट के ।
न करम के , न धरम के ,
परवाह निये चोट के ।
मेहला घर धनिया के ,
छिनार घला अबड़ सति ।
जै हो , तुहंरेच जै हो ,
पांच बछरिया गनपति ।

तोर गुन ला जऊन गाही ,
ओहा सोज्झे नरक मा जाही ।
अइसन तोर महिमा हाबे ,
बिगन चऊंर चाबे पुजाही ।
घूस ले के गुलाम बना ले ,
परजातंत्र के खुरसीपति ।
फेर ये मउका नइ मिले जी ,
पांच बछरिया गनपति ।

गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा