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कविता

आसो के जाड़

जाड़ म जमगे, माँस-हाड़।
आसो बिकट बाढ़े हे जाड़।
आँवर-भाँवर मनखे जुरे हे,
गली – खोर म भुर्री बार।

लादे उपर लादत हे,
सेटर कमरा कथरी।
तभो ले कपकपा गे,
हाड़ -मांस- अतड़ी।

जाड़ म घलो,जिया जरगे।
मुँहूं ले निकले धूंगिया।
तात पानी पियई झलकई,
चाहा तीर लोरे सूँघिया।

जाड़ जड़े तमाचा; हनियाके।
रतिहा- संझा अउ बिहनिया के।
दाँत किटकिटाय,गोड़-हाथ कापे,
कोन खड़े जाड़ म, तनियाके?

बिहना धुँधरा म,सुरुज अरझ गे।
कोहरा के रंग म,चोरो-खूंट रचगे।

दुरिहा के मनखे,चिन्हाय नही।
छंइहा जाड़ म,सुहाय नही।

जाड़ ल जीते बर,
मनखे करथे उपाय।
साल चद्दर के तरी म,
लुकाय ऊपर लुकाय।

फेर ठिठुर के मर जथे,
कतको आने परानी।
जे न जाड़ म कथरी माँगे,
न घाम म ,माँगे पानी।

मंझोत म मनखे,मरे झन जाड़।
चिरहा चेंदरा,उखरों बर जुगाड़।
अपन असन सबो ल जान।
कथरी ओढ़ना के करौ दान।

जब बनेच जाड़ बढ़थे।
सुरुज थोरिक चढ़थे।
त बइठे-बइठे रऊनिया म,
गजब मया बढ़थे।

बाढ़े हे बनेच,आसो के जाड़।
लेवव मजा,अँगरा-अँगेठा बार।

जीतेन्द्र वर्मा”खैरझिटिया”
बालको(कोरबा)
9981441795
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