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कविता

याहा काय जाड़ ये ददा

समझ नइ आवत हे,याहा काय जाड़ ये ददा…!
जादा झन सोच,झटकुन भुररी ल बार बबा…!
अपने अपन कांपाथे,हाथ गोड़…!
चुपचाप बइठ,साल ल ओड़…!
कोन जनी कती,घाम घलो लुकागे हे…!
मोला तो लागत हे,उहू ह जडा़गे हे…!
आज नइ दिखत हे,चंवरा म बइठइया मन…!
रउनिया तपइया,रंग-रंग के गोठियइया मन…!
बइरी जाड़ ह,भारी अतलंग मचावत हे…!
सेटर,कथरी म घलो,आहर नइ बुतावत हे…!
पारा,मोहल्ला होगे,सुन्ना-सुन्ना…!
डोकरी दाई चिल्लावत हे,सेटर होगे जुन्ना…!
गोरसी म दहकत हे,आगी अंगरा…!
बइठे बर घर म,होवत हे झगरा…!
डोकरा बबा घेरी-भेरी,चुल्हा ल झाकत हे…!
चाय पीये बर मन ह,ललचावत हे…!
हवा घलो बिहनिया ले,अलकरहा धुकथे…!
नहवइ घलो लेद दे होगे,थोरको नइ रूकथे…!
काला गोठियाबे ग,तोरो-मोरो सबके उही हाल…!
पीरा कतका बतांवा संगी,जीना होगे बेहाल…!

केशव पाल
मढ़ी (बंजारी) सारागांव,
तिल्दा-नेवरा रायपुर [छ.ग.]
9165973868
Keshavpal768@gmail.com

One reply on “याहा काय जाड़ ये ददा”

अड़बड़े सुघ्घर रचना पाल जी

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