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गोठ बात

छत्तीसगढ़ी गीत नंदावत हे

गीतकार, कवि सुशील यदु से खास बातचीत
अंचल के जाने माने कवि व गीतकार सुशील यदु ने कहा है कि छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीत, लोककला को संरक्षित करने शासन स्तर पर कोई खास प्रयास नहीं हो रहे हैं।
पंजाब की तर्ज छत्तीसगढ़ के लोकउत्सव में भी सिर्फ छत्तीसगढ़ के लोककला व संस्कृति पर आधारित कार्यक्रम प्रमुखता से हो। बाहर के कलाकार बुलाकर अपने कलाकारों को हतोत्साहित करना उचित नहीं है।
कवि सुशील यदु ने इस आशय के विचार ‘देशबन्धु’ के कला प्रतिनिधि से खास मुलाकात में व्यक्त किए।
0 वाचिक परंपरा हाशिये में होने की वजह क्या है ?
00 बदलती जीवन शैली व संचार माध्यमों की बहुलता इसका एक प्रमुख कारण है। मीडिया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है । पहले लोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का अनुभव गांव के चौपाल में या घरों में कहानी, किस्से व लोकगाथा के रूप में सुनते थे। उस समय कोई लिखीत दस्तावेज नहीं होता था। प्रस्तुतिकरण सहज व सरल होने के कारण उसका दूरगामी असर होता था। आज वो बात नहीं रही। संवाद की कमी से भी वाचिक परंपरा प्रभावित हुई है।
0 लोकमंच या रचनाकर्म युवावर्ग को सृजनशील बनाने का सशक्त माध्यम है, नई पीढ़ी को इससे जोड़ने किस तरह के प्रयास होना चाहिए?
00 देखिए पहले गुरू शिष्य परंपरा रही, जिसमें वरिष्ठजनों से कुछ सीखने लोग उत्सुक रहते। नई पीढ़ी अपने बुर्जुगों को पर्याप्त मान-सम्मान देती थी। आज सीखने-सीखाने की परिपाटी कम हो गई है। प्रदेश के अधिकतर लोककलाकार अपने दम पर स्थापित हुए हैं। उन्हें संरक्षित किए जाने की दिशा में गंभीरता से प्रयास नही हुआ। संस्कृति विभाग इस दिशा में ठोस पहल करे। ताकि नई पीढ़ी को पर्याप्त मार्गदर्शन मिले। गांव देहातों में कई कलाकार ऐसे हैं जिनमें प्रतिभा की कमी नहीं है,जो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी काबलियत दिखा चुके हैं। पर आर्थिक दिक्कतों की वजह से वे गुमनामी के अंधरों में जीवन जीने विवश हैं। इनमें कुछ नामी-गिरामी लोकगायकों की मंडली भी है जिसका अस्तित्व धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहा है। यदि हमने अब भी ध्यान नहीं दिया गया तो छत्तीसगढ़ी गीत सुनने को तरस जाएंगे।
0 यदु जी राज्य गठन के समय जो सपना प्रदेश के साहित्यकारों ने देखा था वो पूरा हुआ कि नहीं ? लोककलाकारों की स्थिति पर अपनी राय दें?
00 छत्तीसगढ़ राज्य गठन में अंचल के साहित्यकारों, लेखकों व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का मिला जुला प्रयास रहा। राज्य गठन के दस वर्ष बीतने के बाद भी ऐसा लगता है , कि कहीं कुछ छूट गया है। छत्तीसगढ़ का लोकसंगीत अपने मूल रूप में प्रस्तुत न होना चिंता का विषय है। छत्तीसगढ़ी भाषा के लेखकों की स्थिति इस तरह से हो गई है कि खुद लिखो खुद पढ़ो। होना ये चाहिए कि प्राथमिक कक्षा से लेकर हाई स्कूल तक छत्तीसगढ़ी को एक विषय के रूप में पढ़ाया जाए। ताकि छत्तीसगढ़ी लिखने व बोलने में आसानी हो। छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का गठन तो हुआ है, पर जिस हिसाब से अब तक काम होना चाहिए , उस हिसाब से काम नहीं हो पाया है।
0 आपकी लेखन के क्षेत्र में किनसे प्रभावित रहे?
00 छत्तीसगढ़ के रचनाकार, गीतकार स्वर्गीय हरि ठाकुर से मैं काफी प्रभावित रहा । वे मेरे गुरू रहे। उनके काफी कुछ सीखने का मौका मिला। इसके अलावा द्वारिका प्रसाद तिवारी, बद्रीबिशाल परमानंद, भगवती सेन, कोदूराम दलित, हेमनाथ यदु प्यारेलाल गुप्त मेरे पसंदीदा रचनाकार के रूप में शामिल हैं। हिन्दी के लेखकों में नार्गाजुन, प्रेमचंद, अमृता प्रीतम, जयशंकर प्रसाद की रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया। मैंने ‘छत्तीसगढ़ े सुराजी वीर’ नाम से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की काव्यगाथा लिखी है। इसके अलावा लोककलाकारों पर केन्द्रित लोकरंग भाग 1 व साहित्यकारों पर केन्द्रित लोकरंग भाग 2 का प्रकाशन किया है। एक व्यगंय संग्रह छत्तीसगढ़ी में प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा मेरे द्वारा संपादित कृतियां हैं: बद्रीबिशाल परमानंद के गीत संग्रह ‘पिंवरी लिखे तोर भाग,’ उधोराम की कृति ररूहा के सपना दारभात इसके अलावा बनफूलवा जो कि हेमनाथ यदु के व्यक्तित्व पर केन्द्रित कृति रही। रंगू प्रसाद नामदेव की कृति ‘बगरे मोती’ का संपादन शामिल है।
0 छत्तीसगढ़ी फिल्मों में बारे में आपकी क्या राय है?
00 एक दो फिल्मों को यदि छोड़ दें तो बाकी की फिल्मों में बम्बईया नकल नजर आती है। हिन्दी के संवाद को छत्तीसगढ़ी में प्रस्तुत कर फिल्म बनाने से सिने प्रेमी छत्तीसगढ़ी फिल्मों से से दूर हैं। जो बात हिन्दी फिल्मों में बरसों से दिखाई जा रही है, उसे छत्तीसगढ़ी फिल्मों में दिखाने का कोई तुक नहीं है। यही वजह कि ज्यादातर छत्तीसगढ़ी फिल्में फ्लाप हो रही हैं। साफ सुथरी फिल्में बनाई जाए तो दर्शक आएंगे।
देशबंधु से साभार