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गोठ बात

छत्तीसगढ़ी भासा बर सकारात्मक संवाद जरूरी हे

लोक म बोलचाल के भासा अपन-अपन स्थान विसेस म अलग-अलग होथे। अपन स्थानीय अउ जातीय गुन के आख्यान करथे।
फेर प्रदेस अउ देस के भासा बनत खानी बेवहार म एकरूपता जरूरी हो जाथे। येला हम विविधता म एकरूपता भी कह सकत हन। बिलकुल इही बात बोलचाल के भासा अउ साहित्य के भासा अउ मानकीकरन भासा म लागू होथे। मानकीकृत छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ बर परम आवस्यकता बनगे है। ये बात ल समय के जरूरत मान के स्वीकार करना परही चाहे रोके करी के धो करी।
येफर्रा छत्तीसगढ़ी भासा के मानकीकरन ल ले के बने बहस सुरू होय हे। येकर ले छत्तीसगढ़ी भासा के प्रति जागरूकता पैदा होही।
भासा के पहिली लड़ाई वोकर वर्तनी ले सुरू होथे। छत्तीसगढ़ी के पहिली बियाकरन अउ बोलचाल के परयोग म आत भासा के बात करन तौ छत्तीसगढ़ म श, ष, ज्ञ, क्ष, त्र अउ ऋ जइसे कुछेक सब्द मन के परयोग नइ होवै। अनुस्वार -ॅ अउ अनुनासिक -ॅ के प्रयोग होथे। अब इन सब्द मन ल देखी तौं इंकर बिना छत्तीसगढ़ी भासा के काम आसानी से चल जाथे। ‘ष’ षटकोन अब हिन्दी ले घलो बाहिर होवत जात हे। रहिगे ‘श’ येकर प्रयोग छत्तीसगढ़ी म नइ होय। ये हा जग जाहिर हे। कइ झन ‘वर्णसंकर’ सब्द के सवाल उठाइन, कहिन के शंकर भगवान के नाव होथे वोला छत्तीसगढ़ी म ‘संकर’ लिखबो तौ भगवान के अपमान नइ होही? उनला समझना चाही के ‘वर्णसंकर’ छत्तीसगढ़ी के सब्द नो है। ‘वर्णसंकर’ कहे म मिंझरा जाति के बोध होथे। छत्तीसगढ़ी म येकर बर ‘बेर्रा’ सब्द हे। ‘बेर्रा’ सब्द छत्तीसगढ़ी म गारी के अरथ म घलो प्रयोग म आथे। ‘ज्ञ’ बर ‘ग्यान, गियान’, ‘क्ष’ बर ‘क्छ’ ‘त्र’ बर दिनेश चौहान के अनुसार ‘त्रिभुवन’ बर ‘तिरभुवन’, ‘मंत्र’ बर ‘मंतर’ के उपयोग हो सकत हे। ‘ऋ’ बर बियाकरन के सब्द ‘क्रिया’ ल ले जा सकत हे। वइसन हे ‘कृपा’ बर ‘किरपा’ ‘कृष्ण’ बर ‘कृस्न’ लिखब म आथे। ये तरा ऊपर दिए बरन मन के छत्तीसगढ़ी भासा ले बिदाई निस्चित तौर म बनथे।
छत्तीसगढ़ी ल छत्तीसगढ़ के राजभासा हिन्दी के संगे-संग घोसित करे गे हे। एकर अरथ होइस के छत्तीसगढ़ी हिन्दी ले अलग हे। भासा वैग्यानिक मन कोनो भी भासा के केन्द्रीय ले अलग होय बर कम से कम 50 प्रतिशत के विचलन के होना ल आवस्यक मानथें। अर्थात् हिन्दी ले छत्तीसगढ़ी ल 50 प्रतिशत अलग होना चाही। बेवहार म जब छत्तीसगढ़ी हिन्दी म उपयोग म अवइया ‘बरन’ मन के आठ-दस बरन मन ल उपयोग म नइ लावै तौ येला भासा विग्यान के घलो जरूरत मान के स्वीकार करना चाही। एकर ले दू फायदा हे एक छत्तीसगढ़ी इहें ले हिन्दी के बरन मन ले विचलन ल जाहिर करही अउ दू-छत्तीसगढ़ी अपन बोलचाल अउ मूल बियाकरन के परम्परा ल जस के तस स्वीकारही।
सुशील भोले के अनुसार ‘भासा ल माध्यम बना के बहुत झन मनखे अपन भाव ल परकट करथे त फेर वोला एक निश्चित रूप दे खातिर लिपि के, वोकर मानक रूप के अउ आने जम्मों जरूरी जीनिस मन के बेवस्था करथन।’
सुशील भोले एक कती तो भासा के मानक रूप के वकालत करत दीखथें अउ दूसर कती देवनागरी लिपि के जम्मों बरन ल स्वीकार करे के बात करथें। संस्कृत ल हिन्दी के जननी कहे जाथे। फेर का हिन्दी ह संस्कृत के जमों वरन ल अख्तियार करे हे? इहां तक के हिन्दी म अनुनासिक नदात अउ वोकर जघा अनुस्वार के परयोग ह आम होत जात हे। संस्कृत सब्द कोष के अनुसार ‘हिन्दी में पंचमाक्षरों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग चल पड़ा है, परंतु संस्कृत भासा की यह शैली नहीं है।’
जुन्ना हाना हे- ‘कोस-कोस म पानी बदले, दस कोस म बानी’ ये हाना (मुहावरा) ह लोक म प्रचलित भासा के संग फभथे। छत्तीसगढ़ी म ही ले लौ जिला-जिला, जात-जात के अपन-अपन भासा रूप हे। सब्द तकरीबन समान होय के बावजूद उच्चारन म भेद देखाई दे थे। संज्ञा ले क्रिया तक म। कहूं ‘टूरा’ सब्द बेटा बर आदर के संग बेवहार म आथे तौ कहूं ‘टूरा’ म दोखहा लइका के अरथ म ले के बेवहार म वर्जना के सिकार होना परथे। छत्तीसगढ़ रायपुर दुरूग भर नो हे, येमा सरगुजा, बस्तर, रायगढ़ घलो सामिल हे। सरकार ह आदेस निकालिस- ‘घूस लेना अपराध माने जा है’।
बस्तर के हल्बी बोलइया ‘घूस’ के अरथ नइ जानै। घूस बर उनमन क बोलचाल के भासा म ‘लांच’ सब्द हे। तंबाखू ल उन ‘धुगेंया’ कहिथें। समानार्थी सब्द म भुंइया ल भुई, बूता ल बूतो, आगी ल आइग, दाई ल दई कहिथें। अइसन म सब्द मन के परयोग म एकरूपता लाना जरूरी बन जाथे। राजभासा बने के बाद येकर जरूरत बाढ़ जाथे काबर के सरकारी आदेस अनेक अर्थी नई हो सकै। आदेस बर अर्थ स्पस्टता, एकरूपता अउ क्रियान्वयन म सरलता, तरलता होना जरूरी होथे।
लोक म बोलचाल के भासा अपन-अपन स्थान विसेस म अलग-अलग होथे। अपन स्थानीय अउ जातीय गुन के आख्यान करथे। फेर प्रदेस अउ देस के भासा बनत खानी बेवहार म एकरूपता जरूरी हो जाथे। येला हम विविधता म एकरूपता भी कह सकत हन। बिलकुल इही बात बोलचाल के भासा अउ साहित्य के भासा अउ मानकीकरन भासा म लागू होथे। मानकीकृत छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ बर परम आवस्यकता बनगै है। ये बात ल समय के जरूरत मान के स्वीकार करना परही। चाहे रोके करी के धो करी।
अउ अइसन करत खानी अपन स्थानीयता के मोह ले अलग होना परही। स्थानीयता के मोह दंभ घलो पैदा करथे। पूरा के पूरा छत्तीसगढ़ ल देखन नइ दै। कुंआ के मेचका असन मनखे ल बना दे थे।
साहित्य एक वर्ग विसेस भर बर नइ होय। समाज के दरपन होथे। समाज के सांस्कृतिक उचान ल जाहिर करथे। कलावादी मन अइसनहा बोलथें। सही म कहे जाय तौ भासा हर समय द्वंद्व म परे रहिथे। जुन्ना सब्द संस्कार अउ परयोग के परंपरा संग नवायुग के ग्यान, सिक्छा, आने भासा संग मेल-मिलाप जइसे कई ठन कारन ले मनुस्य के जीवन म नवा-नवा सब्द रूप अपन सामान्य अउ विसेस अर्थ म आथे। युग के आवस्यकता के अनुरूप कईठन जुन्ना सब्द जस के तस रहि जाथें, कभू-कभू अपन अरथ बदल डारथें अउ कभू भासा के व्यवहार छेत्र ले बाहिर घलो हो जाथे। बहिरयात सब्द के जघा नवा समय के नवा सब्द भासा म सामिल हो जाथे। ये हा भासा के विकास के सामान्य प्रक्रिया ए।
आखिरी म ये ही कहे जा सकत हे के येमा संवाद के बल्कि कहे जाय तौ सकारात्मक संवाद होना चाही। तर्क-वितर्क ह समस्या ल समाधान तक नइ पहुंचावै, वोला उलझा दे थे। हमला समस्या के युग सापेक्छ हल निकालना हे तौ सकारात्मक संवाद होना चाही।
डॉ. नंदकिशोर तिवारी
रविन्द्रनाथ टैगोर नगर
मुंगेली रोड बिलासपुर