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कविता

जतन बर करन दीपदान

अइसन कुछु संगी रे, जतन हम करन।
हरियर-हरियर परियावरन हम करन॥
बजबजावत परदूषन ले जिनगी के रद्दा,
दूरिहा जिनगानी ले, घुटन हमन करन।
डार देहे बस्सई मन, ठांव-ठांव म डेरा,
जउन भर दे ममहई ले, चमन हम करन।
रहि नई गय आज कहूं जंगल के रउनक,
मनबोधना फेर, वन, उपवन हम करन।
नंगत कटत हावय इहां रूखुवा रोज-रोज,
हितवा मन के बैरी के, हनन हम करन।
होगे जतका होगे, उजार अउ झन होवय,
अउ घलो खुशहाल हाल, वतन हम करन।
दीया ल बने बार अंधियार झन घपटय
करहू जतन जुरमिल, तभे तो हुसियारी हे
झन ललावय कोनो एक ठन नवा कपड़ा बर
मनावव खुसी बांटके, इही म समझदारी हे
करंय छुनुन-छानन तेलइहा घरो घर
कहंय कोनो झन, हमर तो जुच्छा थारी हे।
लहलावत खेत म धान के बाली,
भरे सबके ढाबा कोठी बारी-बारी
बारव दीप नदिया नरवा अउ बारी
छलकत नदिया अउ हरियर बारी
हरियर-हरियर परियावरन बर
मिलजुर के करन दीपदान।
पाठक परदेशी
डाईट कबीरधाम