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कविता

जोहत हाबन गा अउ झन भुलाबे

जोहत हाबन गा
नई चाहिबे तभो ले,
ये सरकार के बोझ ल
ढोए बर पड़थे I
अऊ ओकर गलती के सजा,
हमर सेना ल भुगते ले पड़थे I
न्याय होही कईके जोहत रहिबे,
अऊ अन्याय ह सफल होथे I
सबर के बाण टूटथे त,
माटी ह मोर लहुलुहान होथे I
ये कईसन राज काज हे भाई,
गूंगा ल भैरा से लड़ाथे I
अऊ दुनो कोई अन्धाधुन गोली बरसाथे I
मेहा जोहत हौ संगवारी,
कभू तो शांत होही दुवारी I
ऐ लुका छिपी के खेल में,
कब रुकही बहत खून के धार ह संगवारी I

झन भुलाबे
दया अऊ धरम ल तेहा बाटत रहिबे संगी I
ऐ पिरित के मया ल तेहा राखे रहिबे संगी I
डोरी बंधना के तेहा बांधे रहिबे संगी I
हमर बोली भाखा ल तेहा धरे रहिबे संगी I
गुरतुर गोठ अऊ बानी ल बोलत रहिबे संगी I
सुख अऊ दुख म मोला तेहा साथ देबे संगी I
ये पथरा के देवता ल तेहा पूजत रहिबे संगी I
जीयत जागत दाई ददा ल झन भुलाबे संगी I
ये निरमोही काया ल तेहा सेवत रहिबे संगी I
काम तो तेहा आबे ककरो जोहत रहिबे संगी I
Vijendra Kumar Verma
विजेंद्र कुमार वर्मा
9424106787

4 replies on “जोहत हाबन गा अउ झन भुलाबे”

बहुत सुंदर रचना हे वर्मा जी एकर बर आपला बधाई |

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